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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
अभिव्यक्ति करता है, लेकिन यथार्थता की जिससे उपलब्धि होती है, उसके लिए सत्याभीप्सा या रुचि आवश्यक है ।
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दर्शन का अर्थ- दर्शन शब्द भी जैनागमों में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जीवादि पदार्थों के स्वरूप देखना, जानना, श्रद्धा करना 'दर्शन' है। सामान्यतया, दर्शन शब्द देखने
अर्थ में व्यवहृत होता है, लेकिन यहाँ दर्शन शब्द का अर्थ मात्र नेत्रजन्य बोध नहीं है। उसमें इन्द्रिय-बोध, मन-बोध और आत्म-बोध, सभी सम्मिलित हैं। दर्शन शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जैन- परम्परा में काफी विवाद रहा है। दर्शन को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक- ज्ञान कहा है। नैतिकजीवन की दृष्टि से विचार करने पर दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ किया गया है। 'दर्शन शब्द के स्थान पर 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। प्राचीन जैन आगमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग अधिक मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र' और उत्तराध्ययनसूत्र' में दर्शन शब्द का अर्थ 'तत्त्वश्रद्धा' है। परवर्ती जैन-साहित्य में दर्शन शब्द देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार, जैन - परम्परा में सम्यक् - दर्शन अपने में तत्त्व - साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अर्थों को समेटे हुए है। इन पर थोड़ी गहराई से विचार करना अपेक्षित है।
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सम्यक् - दर्शन के विभिन्न अर्थ
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सम्यक्-दर्शन शब्द के विभिन्न अर्थों पर विचार करने से पहले हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन-सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम था और उसके पश्चात् किन-किन ऐतिहासिक-परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ। प्रथमतः, हम देखते हैं कि बुद्ध और महावीर के समय में प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यक् — दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था । बौद्धागमों में 62 मिथ्यादृष्टियों एवं जैनागम सूत्रकृतांग में 363 मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख मिलता है, लेकिन वहाँ पर मिथ्यादृष्टि शब्द अश्रद्धा अथवा मिथ्या श्रद्धा के अर्थ में नहीं, वरनू गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। बाद में, जब यह प्रश्न उठा कि गलत दृष्टिकोण को किस सन्दर्भ में माना जाए, तो कहा गया कि जीव (आत्मतत्त्व) और जगत् के सम्बन्ध में जो गलत दृष्टिकोण है, वही मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि है। इस प्रकार, मिथ्यादृष्टि से तात्पर्य हुआ आत्मा और जगत् के विषय में गलत दृष्टिकोण। उस युग में प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक आत्मा और जगत् के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक् - दृष्टि अथवा सम्यग्दर्शन तथा विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि अथवा मिथ्यादर्शन कहता था । बाद में प्रत्येक सम्प्रदाय जीवन और जगत् सम्बन्धी अपने दृष्टिकोण पर विश्वास करने को सम्यग्दृष्टि कहने लगा और जो लोग विपरीत मान्यता रखते थे, उनको मिथ्यादृष्टि कहने लगा । इस प्रकार, सम्यक्दर्शन शब्द तत्त्वार्थ
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