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अविद्या (मिथ्यात्व)
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को प्राप्त होता है। इसके विपरीत, अनेकता में एकता का दर्शन सच्चा ज्ञान है। ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि जो सभी को परमात्मा में और परमात्मा में सभी को स्थित देखता है, उस एकत्वदर्शी को न विजुगुप्सा होती है और न उसे कोई मोह या शोक होता है। वेदान्त-परम्परा में अविद्या जगत् के प्रति आसक्ति एवं मिथ्या दृष्टिकोण है और माया एक ऐसी शक्ति है, जिससे यह अनेकतामय जगत् अस्तित्ववान् प्रतीत होता है। माया इस नानारूपात्मक जगत् का आधार है और अविद्या हमें उससे बाँधे रखती है। वेदान्तदर्शन में माया अद्वय-अविकार्य परमसत्ता की जगत् के रूप में प्रतीति है। वेदान्त में माया न तो सत् है और न असत् है, उसे चतुष्कोटि विनिर्मुक्त कहा गया है। वह सत् इसलिए नहीं है कि उसका निरसन किया जा सकता है। वह असत् इसलिए नहीं है कि उसके आधार पर व्यवहार होता है। वेदान्त-दर्शन में माया जगत् की व्याख्या और उसकी उत्पत्ति का सिद्धान्त है और अविद्या वैयक्तिक-आसक्ति है।
वेदान्त की माया की समीक्षा-वेदान्त-दर्शन में माया एक अर्द्धसत्य है, जबकि तार्किक-दृष्टि से माया या तो सत्य हो सकती है, या असत्य। जैन-दार्शनिकों के अनुसार. सत्य सापेक्ष अवश्य होसकता है, लेकिन अर्द्धसत्य (Quasi-Real) ऐसी कोई अवस्था नहीं हो सकती। यदि अद्वय परमार्थ को नानारूपात्मक मानना अविद्या है, तो जैनदार्शनिकों को यह दृष्टिकोण स्वीकार नहीं है। यद्यपि जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराएँ अविद्या की इस व्याख्या में एकमत हैं कि अविद्या या मोह का अर्थ है-अनात्म या 'पर' में आत्म-बुद्धि।
उपसंहार-अज्ञान, अविद्या या मोह ही सम्यक् प्रगति में सबसे बड़ा अवरोध है, हमारे क्षुद्र व्यक्तित्व और परमात्मत्वके बीच सबसे बड़ी बाधा है। उसके हटते ही हम अपने को अपने में ही उपस्थित परमात्मा के निकट खड़ा पाते हैं। फिर भी, प्रश्न यह है कि इस अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति कैसे हो ? वस्तुतः, अविद्या से मुक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं कि हम अविद्या या अज्ञान को हटाने का प्रयत्न करें, क्योंकि उसके हटाने के सारे प्रयास वैसे ही निरर्थक होंगे, जैसे कोई अंधकार को हटाने का प्रयत्न करे। जैसे प्रकाश के होते ही अंधकार समाप्तहो जाता है, वैसे ही ज्ञानरूप प्रकाश या सम्यग्दृष्टि के उत्पन्न होते ही अज्ञान या अविद्या का अंधकार समाप्त हो जाता है। आवश्यकता इस बात की नहीं कि हम अविद्या या मिथ्यात्व को हटाने का प्रयत्न करें, वरन् आवश्यकता इस बात की है कि हम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की ज्योति को प्रज्वलित करें, ताकि अविद्या या अज्ञान का तामिन (अन्धकार) समाप्त हो जाए।
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