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________________ 10 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन उसके प्रहाण से निर्वाण का लाभ होता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि बौद्ध दर्शन के परवर्ती सम्प्रदायों में अविद्या का स्वरूप बहुत-कुछ वेदान्तिक-माया के समान बन गया है। बौद्ध-दर्शनकी अविद्याकी समीक्षा-बौद्ध-दर्शन के विज्ञानवादी औरशून्यवादी सम्प्रदायों में अविद्या का जो स्वरूप निर्दिष्ट है, वह आलोचना का विषय ही रहा है। विज्ञानवादी और शून्यवादी-विचारक अपने निरपेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर इन्द्रियानुभूति के विषयों को अविद्या या वासना के काल्पनिक-प्रत्यय मानते हैं । दूसरे, उनके अनुसार अविद्याआत्मनिष्ठ (Subjective) है। जैन-दार्शनिकों ने उनकी इस मान्यताको अनुचित ही माना है, क्योंकि प्रथमतः, अनुभव के विषयों को अनादि-अविद्या के काल्पनिक-प्रत्यय मानकर इन्द्रियानुभूति के ज्ञान को असत्य बताया गया है। जैन-दार्शनिकों की दृष्टि में इन्द्रियानुभूति के विषयों को असत् नहीं माना जा सकता; क्योंकि वे तर्क और अनुभव-दोनों को ही यथार्थ मानकर चलते हैं। उनके अनुसार, तार्किक-ज्ञान (बौद्धिक-ज्ञान) और अनुभूत्यात्मक ज्ञान-दोनों ही यथार्थता का बोध करा सकते हैं। बौद्ध-दार्शनिकों की यह धारणा कि अविद्या केवल आत्मगत है, जैन दार्शनिकों को स्वीकार नहीं है। वे अविद्या का वस्तुगत आधार भी मानते हैं । उनकी दृष्टि में बौद्ध-दृष्टिकोण एकांगी है। बौद्ध-दर्शन की अविद्या की विस्तृत समीक्षा डॉ. नथमल टांटिया ने अपनी पुस्तक 'स्टडीज इन जैन फिलासफी' में की है।23 गीता एवं वेदान्त में अविद्या का स्वरूप-गीता में अविद्या, अज्ञान और माया शब्द का प्रयोग हुआ है। गीता में अज्ञान और माया का सामान्यतया दो भिन्न अर्थों में ही प्रयोग हुआ है। अज्ञान वैयक्तिक है और माया ईश्वरीय-शक्ति है। गीता में अज्ञान का अर्थ परमात्मा के उस वास्तविक स्वरूप के ज्ञान का अभाव है, जिस रूप में वह जगत् में व्याप्त होते हुए भी उससे परे है। गीता में अज्ञानशब्द विपरीत ज्ञान, मोह, अनेकता को यथार्थ मान लेना आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ज्ञान के सात्विक, राजस और तामस प्रकारों का विवेचन करते हुए गीता में स्पष्ट बताया गया है कि अनेकता को यथार्थ मानने वाला दृष्टिकोण या ज्ञान राजस है, इसी प्रकार यह मानना कि परमतत्त्व मात्र इतना ही है, यह ज्ञान तामस है। 24 गीता में माया को व्यक्ति के दुःख एवं बन्धनका कारण कहा गया है, क्योंकि यह एक भ्रान्त आंशिक चेतना का पोषण करती है और उस रूप में पूर्ण यथार्थता का ग्रहण सम्भव नहीं होता। फिर भी, माया ईश्वर की एक ऐसी कार्यकारी शक्ति भी है, जिसके माध्यम से परमात्मा इस नानारूपात्मक जगत् में अपने को अभिव्यक्त करता है। वैयक्तिकदृष्टि से माया परमार्थ का आवरण कर व्यक्ति को उसके यथार्थ ज्ञान से वंचित करती है, जबकि परमसत्ता की अपेक्षा से वह उसकी एक शक्ति ही सिद्ध होती है। वेदान्त-दर्शन में अविद्या का अर्थ अद्वय परमार्थ में अनेकता की कल्पना है। बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है कि जो अद्वय में अनेकता का दर्शन करता है, वह मृत्यु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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