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अविद्या (मिथ्यात्व)
आचरण के परिणामस्वरूप सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है। सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण के कारण नैतिक-आचरण होता है।
बौद्ध-दर्शन में अविद्याकास्वरूप-बौद्ध-दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या ही मानी गई है। अविद्या से उत्पन्न व्यक्तित्व ही जीवन का मूलभूत पाप है। जन्म-मरण की परम्परा और दुःख का मूल अविद्या है। जैसे जैन-दर्शन में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती, वैसे ही बौद्ध दर्शन में भी अविद्या की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती। यह एक ऐसी सत्ता है, जिसे समझना कठिन है। हमें बिना अधिक गहराई में गए इसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेना होगा। उसमें अविद्या वर्तमान जीवन की अनिवार्य पूर्ववर्ती अवस्था है, इसके पूर्व कुछ नहीं, क्योंकि जन्म-मरण की प्रक्रिया का कहीं आरम्भ नहीं खोजा जा सकता, लेकिन दूसरी ओर, इसके अस्तित्व से इनकार भी नहीं किया जा सकता। स्वयं जीवन या जन्म-मरण की परम्परा इसका प्रमाण है कि अविद्या उपस्थित है। अविद्या का उद्भव कैसे होता है, यह नहीं बताया जा सकता। अश्वघोष के अनुसार, 'तथता' से ही अविद्या का जन्म होता है।20 डॉ. राधाकृष्णन् की दृष्टि में, बौद्ध-दर्शन में अविद्या उस परमसत्ता, जिसे आलयविज्ञान, तथागतगर्भ, शून्यता, धर्मधातु एवं तथता कहा गया है, की वह शक्ति है, जो विश्व के भीतर से व्यक्तिगत जीवनों की श्रृंखला को उत्पन्न करती है। यह यथार्थ सत्ता के ही अन्दर विद्यमान निषेधात्मक-तत्त्व है। हमारी सीमित बुद्धि इसकी तह में इससे अधिक और प्रवेश नहीं कर सकती। 21
___सामान्यतया, अविद्या का अर्थ चार आर्यसत्यों का ज्ञानाभाव है। माध्यमिक एवं विज्ञानवादी-विचारकों के अनुसार इन्द्रियानुभूति के विषय-इस जगत् की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, यह परतंत्र एवं सापेक्ष है, इसे यथार्थ मान लेना ही अविद्या है। दूसरे शब्दों में, अयथार्थ अनेकता को यथार्थ मान लेना ही अविद्या का कार्य है। इसी में वैयक्तिक अहं का प्रादुर्भाव होता है और यहीं तृष्णा का जन्म होता है। बौद्ध-दर्शन के अनुसार भी विद्या और तृष्णा (अनैतिकता) में पारस्परिक कार्य-कारण संबंध है। अविद्या के कारण तृष्णा और तृष्णा के कारण अविद्या उत्पन्न होती है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में मोह के दो रूप दर्शनमोह और चारित्र-मोह हैं, उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में अविद्या के दो कार्य-ज्ञेयावरण एवं क्लेशावरण हैं। ज्ञेयावरण की तुलना दर्शन-मोह से और क्लेशावरण की तुलना चारित्रमोह से की जा सकती है। जिस प्रकार वैदिक-परम्परा में माया को अनिर्वचनीय कहा गया है, उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में भी अविद्या सत् और असत्-दोनों ही कोटियों से परे है। विज्ञानवाद एवं शून्यवाद के सम्प्रदायों की दृष्टि में नानारूपात्मक जगत् को परमार्थ मान लेना अविद्या है। मेत्रैयनाथ ने अभूतपरिकल्प (अनेकता का ज्ञान) का विवेचन करते हुए कहा कि उसे सत् और असत्-दोनों ही नहीं कहा जा सकता। वह सत् इसलिए नहीं है, क्योंकि परमार्थ में अनेकता या द्वैत का कोई अस्तित्व नहीं है और वह असत् इसलिए नहीं है कि
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