________________
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
जैन-दर्शन में अविद्या का स्वरूप - जैन-दर्शन में अविद्या का पर्यायवाची शब्द 'मोह' भी है। मोह सत् के संबंध में यथार्थ - दृष्टि को विकृत कर गलत मार्ग-दर्शन करता है और असम्यक् आचरण के लिए प्रेरित करता है। परमार्थ और सत्य के संबंध में जो अनेक भ्रान्त धारणाएँ बनती हैं और परिणामतः जो दुराचरण होता है, उसका आधार मोह ही है । मिथ्यात्व, मोह या अविद्या के कारण व्यक्ति की दृष्टि दूषित होती है और परम-मूल्यों के संबंध में भ्रान्त धारणाएँ बन जाती हैं। वह उन्हें ही परममूल्य मान लेता है, जो कि वस्तुतः परममूल्य या सर्वोच्च मूल्य नहीं होते हैं।
अविद्या और विद्या का अन्तर करते हुए समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो पुरुष अपने से अन्य पर - द्रव्य ( सचित्त - स्त्रीपुत्रादि, अचित्त-स्वर्णरजतादि, मिश्र - ग्रामनगरादि) को ऐसा समझे कि 'मेरे हैं, ये मेरे पूर्व में थे, इनका मैं भी पहले था तथा ये मेरे आगामी होंगे, मैं भी इनका आगामी होऊँगा', ऐसा झूठा आत्मविकल्प करता है, वह मूढ़ और जो पुरुष परमार्थ को जानता हुआ ऐसा झूठा विकल्प नही करता, वह मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है। 19
-
जैन - दर्शन में अविद्या या मिथ्यात्व केवल आत्मनिष्ठा (Subjective) ही नहीं हैं, वरन् वह वस्तुनिष्ठ भी है। जैन-दर्शन में मिथ्यात्व का अर्थ है- ज्ञान का अभाव या विपरीत ज्ञान । उसमें एकांत या निरपेक्ष दृष्टि को भी मिथ्यात्व कहा गया है। तत्त्व का सापेक्ष ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है और एकांतिक दृष्टिकोण मिथ्याज्ञान है। दूसरे, जैन-दर्शन में अकेला मिथ्यात्व ही बन्धन का कारण नहीं है । बन्धन का प्रमुख कारण होते हुए भी वह सर्वस्व नहीं है । मिथ्यादर्शन के कारण ज्ञान दूषित होता है और ज्ञान के दूषित होने से चारित्र दूषित होता है। इस प्रकार, मिथ्यात्व अनैतिक जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है और अनैतिक आचरण उसकी अन्तिम परिणति है। नैतिक जीवन के लिए मिथ्यात्व से मुक्त होना आवश्यक है, क्योंकि जब तक दृष्टि दूषित है, ज्ञान भी दूषित होगा और जब तक ज्ञान दूषित है, तब तक आचरण भी सम्यक् या नैतिक नहीं हो सकता । नैतिक जीवन की प्रगति के लिए प्रथम शर्त है - मिथ्यात्व से मुक्त होना ।
जैन- दार्शनिकों की दृष्टि में मिथ्यात्व की पूर्व-कोटि का पता नहीं लगाया जा सकता, यद्यपि वह अनादि है, किन्तु वह अनन्त नहीं । जैन दर्शन की पारिभाषिकशब्दावली में कहें, तो भव्य जीवों की अपेक्षा से मिथ्यात्व अनादि और सान्त है और अभव्य जीवों की अपेक्षा से वह अनादि और अनन्त है। आत्मा पर अविद्या या मिथ्यात्व का आवरण कब से है, इसका पता नहीं लगाया जा सकता, यद्यपि अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति पाई जा सकती है। जैन-दर्शन में मिथ्यात्व का मूल 'कर्म' और कर्म का मूल मिथ्यात्व है। एक ओर, मिथ्यात्व का कारण अनैतिकता है, तो दूसरी ओर अनैतिकता का कारण मिथ्यात्व है। इसी प्रकार, सम्यक्त्व का कारण नैतिकता और नैतिकता का कारण सम्यक्त्व है। नैतिक
68
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org