________________
अविद्या ( मिथ्यात्व )
3. वैनयिक - बिना बौद्धिक-गवेषणा के परम्परागत तथ्यों, धारणाओं, नियमों पनियमों को स्वीकार कर लेना वैनयिक-मिथ्यात्व है। यह एक प्रकार की रूढ़िवादिता है । वैनयिक- मिथ्यात्व को बौद्ध-दृष्टि से शीलव्रत - परामर्श भी कहा जा सकता है। इसे हम कर्मकाण्डी - मनोवृत्ति भी कह सकते हैं। गीता में इस प्रकार के रूढ़-व्यवहार की निन्दा की गई है। गीता कहती है, ऐसी क्रियाएँ जन्म-मरण को बढ़ाने वाली और त्रिगुणात्मक होती हैं । 12
4. संशय - संशयावस्था को भी जैन- विचारणा में मिथ्यात्व या अयथार्थता माना गया है । यद्यपि जैन-दार्शनिकों की दृष्टि में संशय को नैतिक-विकास की दृष्टि से अनुपादेय माना गया है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन- विचारकों ने संशय को इस कोटि में रखकर उसके मूल्य को भुला दिया है। जैन- विचारक भी आज के वैज्ञानिकों की तरह संशय
ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। जैनागम आचारांगसूत्र में कहा गया है, जो संशय को जानता है, वही संसार के स्वरूप का परिज्ञाता होता है, जो संशय को नहीं जानता, वह संसार के स्वरूप का भी परिज्ञाता नहीं हो सकता है, 13 लेकिन साधनामय जीवन में संशय के ऊपर उठना होता है। आचार्य आत्मारामजी आचारांगसूत्र की टीका में लिखते हैं, संशय ज्ञान कराने में सहायक है, परन्तु यदि वह जिज्ञासा की सरल भावना का परित्याग करके केवल संदेह करने की कुटिल वृत्ति अपनाता है, तो वह पतन का कारण बन जाता है । 14 संशय वह स्थिति है, जिसमें प्राणी सत् और असत् की कोई निश्चित धारणा नहीं रखता । यह अनिर्णय की अवस्था है। सांशयिक ज्ञान सत्य होते हुए भी मिथ्या है। नैतिक दृष्टि से ऐसा साधक कब पथ-भ्रष्ट हो सकता है, कहा नहीं जा सकता। वह तो लक्ष्योन्मुखता और लक्ष्यविमुखता के मध्य हिंडोले की भांति झूलता हुआ अपना समय व्यर्थ वाता है। गीता भी यही कहती है कि संशय की अवस्था में लक्ष्य प्राप्त नहीं होता । संशयी आत्मा विनाश को ही प्राप्त होता है।
15
65
-
5. अज्ञान - जैन- विचारकों ने अज्ञान को पूर्वाग्रह, विपरीत - ग्रहण, संशय और एकान्तिक ज्ञान से पृथक् माना है। उपर्युक्त चारों मिथ्यात्व के विधायक पक्ष कहे जा सकते हैं, क्योंकि इनमें ज्ञान तो उपस्थित है, लेकिन वह अयथार्थ है। इनमें ज्ञानाभाव नहीं, वरन् ज्ञान की अयथार्थता है, जबकि अज्ञान ज्ञानाभाव है, अतः वह मिथ्यात्व का निषेधात्मकपक्ष प्रस्तुत करता है । अज्ञान नैतिक-साधना का सबसे अधिक बाधक तत्त्व है, क्योंकि ज्ञानाभाव में व्यक्ति को अपने लक्ष्य का भान नहीं हो सकता है, न वह कर्तव्याकर्तव्य का विचार कर सकता है। शुभाशुभ में विवेक करने की क्षमता का अभाव अज्ञान ही है। ऐसे अज्ञान की अवस्था में नैतिक आचरण संभव नहीं होता।
मिथ्यात्व के 25 भेद - मिथ्यात्व के 25 भेदों का उल्लेख प्रतिक्रमणसूत्र में है, जिसमें से 10 भेदों का उल्लेख स्थानांगसूत्र में है, शेष मिथ्यात्व के भेदों का वर्णन मूलागम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org