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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
आस्वाद दोष और मोक्ष को यथार्थतः नहीं जानता है, यही अविद्या है। मिथ्या स्वभाव को स्पष्ट करते हुए बुद्ध कहते हैं, जो मिथ्यादृष्टि है-मिथ्यासमाधि है - इसी को मिथ्या स्वभाव कहते हैं। मिथ्यात्व एक ऐसा दृष्टिकोण है, जो सत्य की दिशा से विमुख है। संक्षेप में, मिथ्यात्व असत्याभिरुचि है, राग और द्वेष के कारण दृष्टिकोण का विकृत हो जाना है।
जैन-दर्शन में मिथ्यात्वके प्रकार-आचार्य पूज्यपादने मिथ्यात्वको उत्पत्ति की दृष्टि से दो प्रकार का बताया है-1. नैसर्गिक (अनर्जित), अर्थात् मोहकर्म के उदय से होने वाला तथा 2. परोदेशपूर्वक, अर्थात् मिथ्या धारणा वाले लोगों के उपदेश से स्वीकार किया जाने वाला। यह अर्जित मिथ्यात्वचार प्रकार का है- (अ) क्रियावादी-आत्माको कर्त्ता मानना, (ब) अक्रियावादी-आत्मा को अकर्ता मानना, (स) अज्ञानी-सत्य की प्राप्ति को संभव नहीं मानना, (द) वैनयिक-रूढ़ परम्पराओं को स्वीकार करना।
स्वरूप की दृष्टि से जैनागमों में मिथ्यात्व के पाँच प्रकार भी वर्णित हैं -
1. एकान्त-जैन-तत्त्वज्ञान में वस्तुतत्त्वअनन्तधर्मात्मक माना गया है। उसमें मात्र अनन्त गुण ही नहीं होते हैं, वरन् गुणों के विरोधी युगल भी होते हैं, अतः वस्तुतत्त्व का एकांगी ज्ञान पूर्ण सत्य को प्रकट नहीं करता। वह आंशिक सत्य होता है, पूर्ण सत्य नहीं। आंशिक सत्य जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तो वह मिथ्यात्व हो जाता है। न केवल जैन-विचारणा, वरन् बौद्ध-विचारणा में भी एकान्तिक ज्ञान को मिथ्या कहा गया है। बुद्ध कहते हैं- भारद्वाज! सत्यानुरक्षक विज्ञ पुरुष को एकांशसे यह निष्ठा करना योग्य नहीं है कि यही सत्य है और बाकी सब मिथ्या हैं। बुद्ध इस सारे कथन में इसी बात पर जोर देते हैं कि सापेक्ष कथन के रूप में ही सत्यानुरक्षण होता है, अन्य प्रकार से नहीं।' उदान में भी कहा है कि जो एकांतदर्शी हैं, वे ही विवाद करते हैं।10
2. विपरीत-वस्तुतत्त्व को स्वरूप में ग्रहण न कर विपरीत रूप में ग्रहण करना भी मिथ्यात्व है। प्रश्न हो सकता है कि जब वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है और उसमें विरोधीधर्म भी है, तो सामान्य व्यक्ति, जिसका ज्ञान अंशग्राही है, इस विपरीत ग्रहण के दोष से कैसे बच सकता है, क्योंकि उसने वस्तुतत्त्व के जिस पक्ष को ग्रहण किया, उसका विरोधी धर्म भी उसमें उपस्थित है, अतः उसका समस्त ग्रहण विपरीत ही होगा। इस विचार में भ्रान्ति यह है कि यद्यपि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, लेकिन यह तो सामान्य कथन है। एक अपेक्षा से वस्तु में दो विरोधी धर्म नहीं होते, एक ही अपेक्षा से आत्मा को नित्य और अनित्य नहीं माना जाता है। आत्मा द्रव्यार्थिक-दृष्टि से नित्य है, तो पर्यायार्थिक-दृष्टि से अनित्य है, अतः आत्माको पर्यायार्थिक-दृष्टि से भी नित्य मानना विपरीत ग्रहण-रूप मिथ्यात्व है। बुद्ध ने भी विपरीत ग्रहण को मिथ्यादृष्टित्व माना है और विभिन्न प्रकार के विपरीत ग्रहणों को स्पष्ट किया है। गीता में भी विपरीत ग्रहणको अज्ञान कहा गया है। अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म के रूप में मानने वाली बुद्धि को गीता में तामस कहा गया है। (गीता, 18/32)
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