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अविद्या ( मिथ्यात्व)
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अविद्या ( मिथ्यात्व )
जैनागमों में अज्ञान और अयथार्थ ज्ञान- दोनों के लिए 'मिथ्यात्व' शब्द का प्रयोग हुआ है। यही नहीं, कुछ सन्दर्भों में अज्ञान, अयथार्थ ज्ञान, मिथ्यात्व और मोह समान अर्थ में भी प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ अज्ञान शब्द का प्रयोग एक विस्तृत अर्थ में किया जा रहा है, जिसमें उक्त शब्दों का अर्थ भी निहित है। नैतिक दृष्टि से अज्ञान नैतिक आदर्श के यथार्थ ज्ञान के अभाव और शुभाशुभ विवेक की कमी को व्यक्त करता है। जब तक मनुष्य को स्व-स्वरूप
यथार्थ ज्ञान नहीं होता, अर्थात् मैं क्या हूँ, मेरा आदर्श क्या है, या मुझे क्या प्राप्त करना है ? तब तक वह नैतिक जीवन में प्रविष्ट नहीं हो सकता। जैन- विचारक कहते हैं कि जो आत्मा को नहीं जानता, जड़ पदार्थों को नहीं जानता, वह संयम का कैसा पालन (नैतिकसाधना) करेगा ? 1
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ऋषिभाषितसूत्र में तरुण साधक अर्हत् ऋषि गाथापतिपुत्र कहते हैं - अज्ञान ही बहुत बड़ा दुःख है । अज्ञान से ही भय (दुःख) का जन्म होता है, समस्त देहधारियों के लिए भव - परम्परा का मूल विविध रूपों में व्याप्त अज्ञान ही है। जन्म, जरा और मृत्यु, शोक, मान और अपमान, सभी जीवात्मा के अज्ञान से उत्पन्न हुए हैं। संसार का प्रवाह (संतति) अज्ञानमूलक है। 2
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भारतीय नैतिक-चिन्तन में मात्र कर्मों की शुभाशुभता पर ही विचार नहीं किया गया, वरन् शुभाशुभ कर्मों का कारण जानने का भी प्रयास किया गया है। क्यों एक व्यक्ति अशुभ कृत्यों की ओर प्रेरित होता है और क्यों दूसरा व्यक्ति शुभकृत्यों की ओर प्रेरित होता है ? गीता में अर्जुन यह प्रश्न उठाता है कि हे कृष्ण ! नहीं चाहते हुए भी किसकी प्रेरणा से प्रेरित हो यह पुरुष पाप-कर्म में नियोजित होता है
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जैन-दर्शन के अनुसार इसका उत्तर यह है कि मिथ्यात्व ही अशुभ की ओर प्रवृत्ति करने का कारण है ।' बुद्ध का भी कहना है कि मिथ्यात्व ही अशुभाचरण और सम्यक्-दृष्टि
सदाचरण का कारण है । ' गीता कहती है कि रजोगुण से समुद्भव काम ही ज्ञान को आवृत्त कर व्यक्ति को बलात् पाप-कर्म की ओर प्रेरित करता है। इस प्रकार, बौद्ध, जैन और गीता के तीनों आचार - दर्शन इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति का कारण मिथ्या दृष्टिकोण है ।
मिथ्यात्व का अर्थ - जैन- विचारकों की दृष्टि में वस्तुतत्त्व का अपने यथार्थ स्वरूप बोध होना ही मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व लक्ष्य - विमुखता है, तत्त्वरुचि का अभाव है, अथवा सत्य के प्रति जिज्ञासा या अभीप्सा का अभाव है । बुद्ध ने अविद्या को वह स्थिति माना है, जिसके कारण व्यक्ति परमार्थ को सम्यक् रूप में नहीं जान पाता । बुद्ध कहते हैं,
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