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________________ भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन था, वहाँ अक्रियावाद के अनुसार ज्ञान ही नैतिकता का सर्वस्व था । क्रियावाद कर्ममार्ग का प्रतिपादक था और अक्रियावाद ज्ञानमार्ग का प्रतिपादक। कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के अतिरिक्त तीसरी परम्परा अज्ञानवादियों की थी, जो अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक-मान्यताओं और उन पर आधारित नैतिक-प्रत्ययों को 'अज्ञेय' स्वीकार करती थी । इसका नैतिक-दर्शन रहस्यवाद और सन्देहवाद- इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों परम्पराओं के अतिरिक्त चौथी परम्परा विनयवाद की थी, जिसे नैतिक - जीवन के सन्दर्भ में भक्तिमार्ग का प्रतिपादक माना जाता था । विनयवाद भक्तिमार्ग का ही अपरनाम था। इस प्रकार, उस युग में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और अज्ञेयवाद एवं सन्देहवाद की परम्पराएँ अलग-अलग रूप में प्रतिष्ठित र्थी । महावीर ने अपने अनेकांतवादी दृष्टिकोण के आधार पर इनमें एक समन्वय खोजने का प्रयास किया। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के रूप में आचारदर्शन का एक ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसमें ज्ञानवादी, कर्मवादी और भक्तिमार्गीपरम्पराओं का समुचित समन्वय था। इस प्रकार, महावीर एवं जैन-दर्शन का प्रथम प्रयास आचार-दर्शन के सम्बन्ध में विभिन्न एकांगी दृष्टिकोणों के मध्य समन्वय स्थापित करना था, यद्यपि जैन - परम्परा को सन्देहवाद किसी भी अर्थ में स्वीकृत नहीं है । (ब) नैतिकता के बहिर्मुखी एवं अन्तर्मुखी - दृष्टिकोणों का समन्वय - जैनदर्शन ने न केवल ब्राह्मणवाद द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग की परम्परा का विरोध किया, वरन् श्रमण परम्परा के देह- दण्डन की तपस्यात्मक प्रणाली का भी विरोध किया । सम्भवतः, महावीर के पूर्व तक नैतिकता का सम्बन्ध बाह्य-तथ्यों से ही जोड़ा गया था, यही कारण था कि जहाँ ब्राह्मण-वर्ग यज्ञ-याग के क्रियाकाण्डों में नैतिकता की इतिश्री मान लेता था, वहाँ श्रमण-वर्ग भी विविध प्रकार के देह-दण्डन में ही नैतिकता की इतिश्री मान लेता था । सम्भवतः, जैन- परम्परा के महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने नैतिक एवं आध्यात्मिक-साधना के बाह्य - पहलू के स्थान पर उसके आन्तरिक - पहलू पर बल दिया था और परिणामस्वरूप श्रमण परम्पराओं में कुछ ने इस आन्तरिक पहलू पर अधिक बल देना प्रारम्भ कर दिया था, लेकिन महावीर के युग तक नैतिकता एवं साधना का यह बाह्यमुखी - दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था, वरन् ब्राह्मण-परम्परा में तो यज्ञ, श्राद्धादि के रूप में वह अधिक प्रसार पा गया था। दूसरी ओर, जिन विचारकों ने नैतिकता आन्तरिक पक्ष पर बल देना प्रारम्भ किया था, उन्होंने बाह्यपक्ष की पूरी तरह अवहेलना करना प्रारम्भ कर दिया था। परिणामस्वरूप, वे भी एक अति की ओर जाकर एकांगी बन गए थे। अतः, महावीर ने दोनों ही पक्षों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया और यह बताया कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है। उसमें आचरण के बाह्य-पक्ष के रूप क्रिया का जो स्थान है, उससे भी अधिक स्थान आचरण के आन्तरिक-प्रेरक का है। इस - 536 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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