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उपसंहार
पिछले अध्यायों में आचारदर्शन की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक-समस्याओं के सन्दर्भ में जैनदर्शन के मन्तव्यों की विवेचना की गई और उस सम्बन्ध में बौद्ध एवं वैदिकपरम्पराओं से उनकी यथासम्भव तुलना की गई है। प्रस्तुत अध्याय में जैन-आचार-दर्शन का उस युग की एवं समकालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में मूल्यांकन करने का प्रयास है।
किसी भी आचारदर्शन का मानव-जीवन के सन्दर्भ में क्या मूल्य हो सकता है, यह इस पर निर्भर है कि वह मानव-जीवन एवं मानव-समाज की समस्याओं का निराकरण करने में कहाँ तकसमर्थ है और मानव-जीवन एवं मानव-समाज के लिए उसका क्या और कितना सक्रिय योगदान है। जैन-आचारदर्शन का मूल्यांकन करने के लिए हमें विचार करना होगा कि वह वैयक्तिक एवं सामाजिक-विकास तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक-जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए कौनसे सूत्र प्रस्तुत करता है और वे सूत्र समस्याओं के समाधान एवं जीवन की प्रगति में कितने सक्षम हैं, साथ ही यह विचार भी आवश्यक है कि उसका वैयक्तिक एवं सामाजिक-जीवन पर क्या प्रभाव रहा है और उसने युग की सामाजिकसमस्याओं का समाधान किस रूप में प्रस्तुत किया है।
सर्वप्रथम हम जैन-दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए इस सम्बन्ध में विचार करेंगे कि जैन-दर्शन ने विशेषकर महावीर के युग की तत्कालीन समस्याओं का समाधान किस रूप में प्रस्तुत किया है और उस युग के सन्दर्भ में उसका क्या मूल्य हो सकता है। महावीर-युगकी आचार-दर्शन सम्बन्धी समस्याएँ औरजैन-दृष्टिकोण
(अ) नैतिकताकी विभिन्न धारणाओंकासमन्वय-महावीर-युग की आचारदर्शन की सबसे प्रमुख समस्या यह थी कि उस युग में आचार-दर्शन सम्बन्धी मान्यताएँ एकांगी दृष्टिकोण को ही पूर्ण सत्य समझकर परस्पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ी थी। महावीर ने सर्वप्रथम उनमें समन्वय करने का प्रयास किया। उस युग में आचार-दर्शन सम्बन्धी चार दृष्टिकोण चार विभिन्न तात्त्विक आधारों पर खड़े थे। क्रियावादी-दृष्टिकोण आचार के बाह्य-पक्षों पर अधिक बल देता था। वह कर्मकाण्डपरक था और आचार के बाह्य-नियमों को ही नैतिकता का सर्वस्व मानता था। बौद्ध-परम्परा में नैतिकता की इस धारणाकोशीलव्रत-परामर्श कहा गया है। दूसरा दृष्टिकोण अक्रियावादकाथा। अक्रियावाद के तात्त्विक-आधार या तो विभिन्न नियतिवादी-दृष्टिकोण थे या आत्म को कूटस्थ एवं अकर्ता मानने की तात्त्विक-धारणा थी। नैतिक-दर्शन की दृष्टि से ये परम्पराएँ ज्ञानमार्ग की प्रतिपादकीं । जहाँ क्रियावाद के अनुसार कर्म या आचरण ही नैतिक-जीवन का सर्वस्व
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