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________________ 520 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन दिशा में बढ़ता है। यह विकास की भूमिका है। जब सत्व के ज्ञानप्रकाश में आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को पहचान लेती है, तो वह गुणातीत हो द्रष्टामात्र रह जाती है। इन गुणों की प्रवृत्तियों में उसकी ओर से मिलने वाला सहयोग बन्दहो जाता है। त्रिगुण भी संघर्ष के लिए मिलनेवाले सहयोग के अभाव में संघर्ष से विरत हो साम्यावस्था में स्थित हो जाते हैं, तब सत्वज्ञान-ज्योति बन जाता है। रजस् स्वस्वरूप में रमण बन जाता है और तमस् शान्ति का प्रतीक होता है। यह त्रिगुणातीत दशा ही आध्यात्मिक-पूर्णता की अवस्था है। सत्व, रज और तम-इन तीन गुणों के आधार पर ही गीता में व्यक्तित्व, श्रद्धा, ज्ञान, बुद्धि, कर्म, कर्ता आदि का त्रिविध वर्गीकरण है। प्रश्न यह उठता है कि हम गीता में इस त्रिगुणात्मकता की धारणा को ही नैतिक विकास-क्रम का आधार क्यों मानते हैं ? इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जैन-दर्शन में बन्धन का प्रमुख कारण मोहकर्म है और उसके दो भेद दर्शनमोह और चारित्रमोह के आवरणों की तारतम्यता के आधार पर प्रमुख रूप से नैतिक-विकास की कक्षाओं की विवेचना की जाती है, उसी प्रकार गीता के आचार-दर्शन में बंधन का मूल कारण त्रिगुण है। गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि सत्व, रज और तम-इन गुणों से प्रत्युत्पन्न त्रिगुणात्मक-भावों से मोहित होकर जगत् के जीव उस परम अव्यय परमात्मस्वरूप को नहीं जान पाते हैं। नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास-क्रम की चर्चा करते समय इन गुणों को आधारभूत मानना पड़ता है। यद्यपि सभी गुण बन्धन हैं, तथापि इनमें तारतम्य है। जहाँ तमोगुण विकास में बाधक होता है, वहाँ सत्व-गुण उसमें ठीक उसी प्रकार सहायक होता है, जिस प्रकार जैनदृष्टि में सम्यक्त्वमोह विकास में सहायक होता है। यदि हम नैतिक विकास-दृष्टि से इस सिद्धान्त की चर्चा करना चाहते हैं, तो हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि जिन नैतिक-विवेचनाओं में भौतिक-दृष्टिकोण के स्थान पर आध्यात्मिक-दृष्टिकोण को स्वीकृत किया जाता है, उनमें नैतिक-मूल्यांकन की दृष्टि से व्यक्ति का आचरण प्राथमिक तथ्य न होकर उसकी जीवनदृष्टि ही प्राथमिक तथ्य होती है; आचरण का स्थान द्वितीय होता है। उनमें यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में किया गया आचरण अधिक मूल्यवान् नहीं होता। उसकाजो कुछ भी मूल्य है, वह उसके यथार्थ दृष्टि की ओर उन्मुख होने में ही है, अतः हम गीता की दृष्टि से नैतिक-विकास की श्रेणियों की चर्चा जैन और बौद्ध-परम्पराओं के समान ही श्रद्धा को प्राथमिक और आचरण को द्वितीयक मानकर ही करेंगे। गीता में भी यह कहा गया है कि दुराचारी भी सम्यक् निश्चयवाला होने से साधु ही माना जाना चाहिए। इस कथन में उपर्युक्त विचारणा की पुष्टि की गई है। अतः, नैतिक-विकास की श्रेणियों का विवेचन करते समय प्रथम जीवन-दृष्टि, श्रद्धा एवं ज्ञान (बुद्धि) का सत्व, रज एवं तमोगुण के आधार पर त्रिविध वर्गीकरण करना होगा। तत्पश्चात्, उस सत्वप्रधान जीवन-दृष्टि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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