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आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास
आचरण की दृष्टि से त्रिविधि विवेचन करना होगा। यद्यपि प्रत्येक गुण में भी तारतम्य की दृष्टि से अनेक अवान्तर-वर्ग हो सकते हैं, लेकिन प्रस्तुत सन्दर्भ में अधिक भेद-प्रभेदों की ओर जाना इष्ट नहीं है ।
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1. प्रथम वर्ग वह है, जहाँ श्रद्धा एवं आचरण- दोनों ही तामस हैं, जीवन-दृष्टि अशुद्ध है। गीता के अनुसार, इस वर्ग में रहनेवाला प्राणी परमात्मा की उपलब्धि में असमर्थ होता है, क्योंकि उसके जीवन की दिशा पूरी तरह असम्यक् है। गीता के अनुसार, इस अविकास-दशा की प्रथम कक्षा में प्राणी की ज्ञान-शक्ति माया के द्वारा कुण्ठित रहती है, उसकी वृत्तियाँ आसुरी और आचरण पापकर्मा होता है। " यह अवस्था जैन- विचारणा के मिथ्यात्व - गुणस्थान एवं बौद्ध - विचारणा की अन्धपृथक्जन - भूमि के समान है। गीता के अनुसार, इस तमोगुण भूमि में मृत्यु होने पर प्राणी मूढ़ योनियों में जन्म लेता है; (प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते 14.15 ) अधोगति को प्राप्त होता है ।
2. दूसरा वर्ग हो सकता है, जहाँ श्रद्धा अथवा जीवनदृष्टि तो तामस हो, लेकिन आचरण सात्विक हो । इस वर्ग के अन्दर गीता में वर्णित वे भक्त आते हैं, जो आर्त्त-भ -भाव एवं किसी कामना को लेकर (अर्थार्थी) भक्ति (धर्माचरण) करते हैं। गीताकार ने इनको सुकृति (सदाचारी) एवं उदार कहा है, 34 लेकिन साथ ही साथ यह भी स्वीकार किया है कि ऐसे व्यक्ति परमात्मा, मोक्ष या परमगति को प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं। गीता का स्पष्ट निर्देश है कि कामनाओं के कारण जिनका ज्ञान अपहृत हो गया, वे सम्यकदृष्टि पुरुष के समान आचरण करते हुए भी अस्थायी फल को प्राप्त होते हैं, जबकि यथार्थदृष्टि - सम्पन्न व्यक्ति उसी आचरण के फलस्वरूप परमात्मस्वरूप की प्राप्ति करते हैं। ” इसका तात्पर्य यह है कि गीता के अनुसार भी ऐसे व्यक्तियों की दृष्टि या श्रद्धा यथार्थ नहीं हो सकती है, क्योंकि वह बन्धन का कारण ही होती है, मुक्ति का नहीं, 36 अतः पारमार्थिक दृष्टि से उन्हें मिथ्यादृष्टि ही मानना होगा । चाहे सदाचरण के कारण उन्हें स्वर्गादि सुख ही क्यों न मिलता हो, फिर भी वे निर्वाण-मार्ग से तो विमुख ही हैं। यह वर्ग जैन- विचारणा के अनुसार सम्यक्त्व- त्र - गुणस्थान के निकटवर्ती मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती जीवों का है । बौद्ध-दृष्टि से यह अवस्था कल्याणपृथक्जनभूमि या धर्मानुसारी-भूमि से तुलनीय है ।
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तीसरा वर्ग वह है, जहाँ श्रद्धा अथवा बुद्धि राजस हो । श्रद्धा अथवा बुद्धि के राजस होने का तात्पर्य उसकी चंचलता या अस्थिरता है। श्रद्धा या बुद्धि की अस्थिर या संशयपूर्ण अवस्था में आचरण सम्भव नहीं होता। अस्थिरबुद्धि किसी भी स्थायित्वपूर्ण आचरण का निर्णय नहीं ले पाता, अतः यह भूमिका जीवनदृष्टि और आचरण दोनों ही अपेक्षा से राजस होती है। गीता में अर्जुन का व्यक्तित्व इसी धर्म से मूढ़ चेतना की भूमिका को लेकर प्रस्तुत
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