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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास 519 7. जिन-बुद्धघोष ने इसे ज्ञान प्राप्त करने की भूमि माना है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह भूमि जैन-परम्परा के सयोगीकेवली-गुणस्थान या बौद्ध-परम्परा की अर्हत्-अवस्था के समकक्ष होनी चाहिए। 8. प्राज्ञ-बुद्धघोष ने इसे वह अवस्थामाना है, जिसमें भिक्षु (जिन) कुछ भी नहीं बोलता। वस्तुतः, यह अवस्था जैन-परम्परा के अयोगीकेवली-गुणस्थान के समान ही होना चाहिए, जब साधक शारीरिक और मानसिक-गतिविधियों का पूर्णतया निरोध कर लेता है। वस्तुतः, बुद्धघोष ने प्रथम से लेकर पाँचवी भूमिका तक के जो अर्थ किए हैं, वे युक्ति-संगत नहीं हैं। इस बात का उल्लेख पं.सुखलालजी और प्रो. होर्नले ने भी किया था, क्योंकि बुद्धघोष की व्याख्या का सम्बन्ध आध्यात्मिक-विकास के साथ नहीं बैठता था। यद्यपि मैंने इनका जो अर्थ किया है, वह भी विद्वानों की दृष्टि में क्लिष्ट कल्पना तो होगी, किन्तु फिर भी वह आजीवक-सम्प्रदाय की मूल भावना के अधिक निकट होगा। वस्तुतः, बुद्धघोष के समय तक इन शब्दों का मूल अर्थ विलुप्त हो गया होगा और इसलिए इनके सम्बन्ध में उन्होंने अपनी बुद्धि के अनुसार ही कल्पना की होगी। इस प्रसंग में मैंने जो व्याख्या की है, वह असंगत नहीं मानी जा सकती है। गीताके त्रिगुण-सिद्धान्त और गुणस्थान-सिद्धान्त की तुलना ___ यद्यपि गीता में नैतिक एवं आध्यात्मिक-विकासक्रम का उतना विस्तृत विवेचन नहीं मिलता, जितना जैन-विचार में मिलता है, तथापि गीता में उसकी एक मोटी रूपरेखा अवश्य है। गीता में इस वर्गीकरण का प्रमुख आधार त्रिगुण की धारणा है। डॉ. राधाकृष्णन् भगवद्गीता की टीका में लिखते हैं - ‘आत्मा का विकास तीन सोपानों से होता है। यह निष्क्रिय, जड़ता और अज्ञान (तमोगुणप्रधान अवस्था ) से भौतिक सुखों के लिए संघर्ष (रजोगुणात्मक-प्रवृत्ति) के द्वारा ऊपर उठती हुई ज्ञान और आनन्द की ओर बढ़ती है। 23 गीता के अनुसार, आत्मा तमोगुण से रजोगुण और सत्वगुण की ओर बढ़ती हुई अन्त में गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाती है। गीता में इन गुणों के संघर्ष की दशा का प्रतिपादन है, जिससे नैतिक एवं आध्यात्मिक-विकास को समझा जा सकता है। जब राजसगुण और सत्वगुण को दबाकर तमोगुण हावी होता है, तो जीवन में निष्क्रियता एवं जड़ता बढ़ती है। प्राणी परिवेश के सम्मुख झुकता रहता है। यह अविकास की अवस्था है। जब सत्व और तम को दबाकर राजस प्रधान होता है, तो जीवन में अनिश्चयता, तृष्णा और लालसा बढ़ती है। इसमें अन्ध एवं आवेशपूर्ण प्रवृत्तियों का बाहुल्य होता है, यह अनिश्चय की अवस्था है। यह दोनों ही अविकास की सूचक हैं। जब रजस् और तमस् को दबाकर सत्व प्रबल होता है, तो जीवन में ज्ञान का काण आलोकित होता है, जीवन यथार्थ आचरण की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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