SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 520
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 518 र आवार दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन आजीवक- सम्प्रदाय एवं आध्यात्मिक विकास की अवधारणा बुद्ध और महावीर के समकालीन विचारक मंखली गोशालक के आजीवकसम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की कोई अवधारणा अवश्य थी, जिसका उल्लेख 'मज्झिमनिकाय' की बुद्धघोषकृत सुमंगलविलासिनी-टीका में मिलता है । बुद्धघोष ने आजीवक-सम्प्रदाय की आध्यात्मिक-विकास की आठ क्रमिक अवस्थाओं का उल्लेख किया है। ये आठ अवस्थाएँ निम्न हैं - ___ 1. मन्द - बुद्धघोष के अनुसार, जन्म से लेकर सात दिन तक यह मन्द अवस्था' होती है, किन्तु मेरी दृष्टि में मन्द अवस्था' का अर्थ भिन्न ही होना चाहिए। यद्यपि वर्तमान में आजीवक-सम्प्रदाय के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए इस सम्बन्ध में वास्तविक अर्थ बता पाना तो कठिन है, किन्तु यह भूमि जैन-दर्शन के मिथ्यात्व-गुणस्थान के समान ही होनी चाहिए, जिसमें प्राणी का आध्यात्मिक-विकास कुण्ठित रहता है। 2. खिड्डा-बुद्धघोष ने इसे बालक की रूदन और हास्य मिश्रित क्रीड़ा की अवस्था माना है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह अवस्था जैन-परम्परा के अविरतसम्यक्दृष्टिगुणस्थान के समान होना चाहिए, जिसमें साधक आत्मरमण या आध्यात्मिक-क्रीड़ा की अवस्था में रहता है। 3. पदवीमांसा-बुद्धघोष के अनुसार, जिस प्रकार बालक माता-पिता के हाथ का सहारा लेकर चलने का प्रयास करता है, उसी प्रकार इस अवस्था में साधक गुरु का आश्रय लेकर साधना के क्षेत्र में अपना कदम रखता है। इसे हम जैन-दर्शन के पाँचवें विरतसम्यक्दृष्टि-गुणस्थान के समकक्ष मान सकते हैं । पदवीमांसा का अर्थ है-कदम रखना, अत: वह आध्यात्मिक-क्षेत्र में कदम रखना है। 4. ऋजुगत- बुद्धघोष ने यह माना है कि जब बालक पैरों पर बिना सहारे के चलने लगता है, तब ऋजुगत-अवस्था होती है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह गृहस्थ-साधना में ही एक आगे बढ़ा हुआचरण है, जिसमें साधक स्वतन्त्र रूपसे आध्यात्मिक-साधना में आगे बढ़ता है। जैन-परम्परा में जो श्रावक-प्रतिमाओं की भूमि है, सम्भवतः यह वैसी ही कोई अवस्था है। 5.शैक्ष-बुद्धघोष के अनुसार, यह अवस्था शिल्पकला के अध्ययन की अवस्था है, जबकि मेरी दृष्टि में इसे बौद्ध-परम्परा के श्रामणेर या जैन-परम्परा के सामायिकचारित्र जैसी भूमि के समकक्ष मानना चाहिए। जैन गुणस्थान-सिद्धान्त से इस अवस्था की तुलना छठवें प्रमत्तसंयत-गुणस्थान से भी की जा सकती है। 6. श्रमण-बुद्धघोष ने इसे संन्यास ग्रहण की अवस्था माना है। जैन-परम्परा में इसे अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान के समकक्ष अवस्था माना जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy