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________________ 498 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन गुणस्थान को प्राप्त कर सकती हैं, यदि उन्होंने कभी भी चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श किया हो। जो चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध कर, पुनः पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करती हैं, वेही आत्माएँ अपने उत्क्रान्तिकाल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में आती हैं, लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व (यथार्थबोध) का स्पर्श नहीं किया है, वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में जाती हैं, क्योंकि संशय उसे हो सकता है, जिसे यथार्थता का कुछ अनुभव हुआ है। यह एक अनिश्चय की अवस्था है, जिससे साधक यथार्थ-बोध के पश्चात् संशयावस्था को प्राप्त हो जाने के कारण सत्य और असत्य के मध्य झूलता रहता है। नैतिक-दृष्टि से कहें, तो यह एक ऐसी स्थिति है. जबकि व्यक्ति वासनात्मक-जीवन और कर्त्तव्यशीलता के मध्य, अथवा दो परस्पर विरोधी कर्तव्यों के मध्य उसे क्या करना श्रेय है, इसका निर्णय नहीं कर पाता। वस्तुतः, जब व्यक्ति सत्य और असत्य के मध्य किसी एक का चुनाव न कर अनिर्णय की अवस्था में होता है, तब ही यह अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न होती है। इस अनिर्णय की स्थिति में व्यक्ति को न सम्यक्दृष्टि कहा जा सकता है, न मिथ्यादृष्टि। यह भ्रान्ति की एक ऐसी अवस्था है, जिसमें सत्य और असत्य ऐसे रूप में प्रस्तुत होते हैं कि व्यक्ति यह पहचान नहीं पाता कि इनमें से सत्य कौन है? फिर भी, इस वर्ग में रहा हुआ व्यक्ति असत्य को सत्य रूप में स्वीकार नहीं करता है। यह अस्वीकृत भ्रान्ति है, जिसमें व्यक्ति को अपने भ्रान्त होने का ज्ञान रहता है, अतः वह पूर्णतः न तो भ्रान्त कहा जा सकता है, न अभ्रान्त। जो साधक सन्मार्ग या मुक्ति-पथ में आगे बढ़ते हैं, लेकिन जब उन्हें अपने लक्ष्य के प्रति संशय उत्पन्न हो जाता है, वे चौथी श्रेणी से गिरकर इस अवस्था में आ जाते हैं। अपने अनिश्चय की अल्प कालावधि में इस वर्ग में रहकर, सन्देह के नष्ट होने पर या तो पुनः चौथे सम्यक्दृष्टि-गुणस्थान में चले जाते हैं, या पथ-भ्रष्ट होने से पहले मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान में चले जाते हैं । मनोवैज्ञानिक-दृष्टि से यह पाशविक एवं वासनात्मक-जीवन के प्रतिनिधि इदम् (अबोधात्मा) और आदर्श एवं मूल्यात्मक-जीवन के प्रतिनिधि नैतिक मन (आदर्शात्मा) के मध्य संघर्ष की वह अवस्था है, जिसमें चेतन मन (बोधात्मा) अपना निर्णय देने में असमर्थता का अनुभव करता है और निर्णय को स्वल्प समय के लिए स्थगित रखता है। यदि चेतन मन वासनात्मकता का पक्ष लेता है, तो व्यक्ति भोगमय जीवन की ओर मुडता है, अर्थात मिथ्यादष्टि हो जाता है और यदिचेतन मन आदर्शों या नैतिक-मूल्यों के पक्ष में अपना निर्णय देता है, तो व्यक्ति आदर्शों की ओर मुड़ता है, अर्थात् सम्यक्दृष्टि हो जाता है। मिश्र-गुणस्थान जीवन के संघर्ष की अवस्था का द्योतक है, जिसमें सत्य और असत्य, शुभ और अशुभ, अथवा मानव में निहित पाशविक-वृत्तियों और आध्यात्मिक-वृत्तियों के मध्य संघर्ष चलता है, लेकिन जैन-विचारधारा के अनुसार, यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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