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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास 499 वैचारिक या मानसिक-संघर्ष की अवस्था अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट) से अधिक नहीं रहती। यदि आध्यात्मिक एवं नैतिक-पक्ष विजयी होता है, तो व्यक्ति आध्यात्मिक-विकास की दिशा में आगे बढ़कर यथार्थ दृष्टिकोण को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् वह चतुर्थ अविरतसम्यक्दृष्टि-गुणस्थान में चला जाता है, किन्तु जब पाशविक-वृत्तियाँ विजयी होती हैं, तो व्यक्ति वासनाओं के प्रबलतम आवेगों के फलस्वरूप यथार्थ दृष्टिकोण से वंचित हो, पुनः पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व-गुणस्थान में चला जाता है। इस प्रकार, नैतिक-प्रगति की दृष्टि से यह तीसरा गुणस्थान भी अविकास की अवस्था ही है ; क्योंकि जब तक व्यक्ति में यथार्थ-बोध या शुभाशुभ के सम्बन्ध में सम्यक् विवेक जाग्रत नहीं हो जाता है, तब तक वह नैतिक-आचरण नहीं कर पाता है। इस तीसरे गुणस्थान में शुभ और अशुभके सन्दर्भ में अनिश्चय की अवस्था अथवा सन्देहशीलता की स्थिति रहती है, अतः इस अवस्था में नैतिक-आचरण की सम्भावना नहीं मानी जा सकती। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तृतीय मिश्र-गुणस्थान में, अथवा अनिश्चय की अवस्था में मृत्यु नहीं होती, क्योंकि आचार्य नेमिचन्द्र का कथन है कि मृत्यु उसी स्थिति में सम्भव है, जिसमें भावी-आयुकर्म का बन्ध हो सके। इस तृतीय गुणस्थान में भावी-आयुकर्म का बंध नहीं होता, अतः मृत्युभी नहीं हो सकती। इस सन्दर्भ में डाक्टर कलघाटकी कहते हैं कि इस अवस्था में मृत्यु सम्भव नहीं हो सकती, क्योंकि मृत्यु के समय में इस संघर्ष की शक्ति चेतना में नहीं होती है, अतः मृत्यु के समय यह संघर्ष समाप्त होकर या तो व्यक्ति मिथ्या-दृष्टिकोण को अपना लेता है, या सम्यक्दृष्टिकोणको अपनालेता है। 17 यह अवस्था अल्पकालिक होती है, लेकिन अल्पकालिकता केवल इसी आधार पर है कि मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमा-रेखाओं का स्पर्श नहीं करते हुए संशय की स्थिति में अधिक नहीं रहा जा सकता, लेकिन मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमाओं का स्पर्श करते हुए यह अनिश्चय की स्थिति दीर्घकालिक भी हो सकती है। गीता अर्जुन के चरित्र के द्वारा इस अनिश्चय की अवस्था का सुन्दर चित्र प्रस्तुत करती है। आंग्ल-साहित्य में शेक्सपियर ने अपने हेमलेट नामक नाटक में राजपुत्र हेमलेट के चरित्र का जो शब्दांकन किया है, वह भी सत् और असत् के मध्य अनिश्चयावस्था का अच्छा उदाहरण है। 4. अविरतसम्यक्दृष्टि-गुणस्थान __ अविरतसम्यक्दृष्टि-गुणस्थान आध्यात्मिक-विकास की वह अवस्था है, जिसमें साधक को 'थार्थता का बोध या सत्य का दर्शन हो जाता है। वह सत्य को सत्य के रूप में और असत्य को असत्य के रूप में जानता है। उसका दृष्टिकोण सम्यक् होता है, फिर भी उसका आचरणनैतिक नहीं होता है। वह अशुभ को अशुभ तो मानता है, लेकिन अशुभके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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