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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास . 497 सभी आत्माएं आध्यात्मिक-विकास की दृष्टि से समान नहीं हैं। उनमें भी तारतम्य है। पण्डित सुखलालजी के शब्दों में-प्रथम गुणस्थान में रहने वाली ऐसीअनेक आत्माएं होती हैं, जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाए हुए होती हैं। वे यद्यपि आध्यात्मिकलक्ष्य के सर्वदा अनुकूलगामी नहीं होती, तो भी उनका बोध व चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छाहीहोताहै। यद्यपि ऐसीआत्माओं की अवस्थाआध्यात्मिकदृष्टि से सर्वथा आत्मोन्मुख नहोने के कारण मिथ्यादृष्टि, विपरीतदृष्टियाअसत्दृष्टि कहलाती है तथापि वह सदृष्टि के समीप ले जाने वाली होने के कारण उपादेय मानी गई है। आचार्य हरिभद्र ने मार्गाभिमुख अवस्था के चार विभाग किए हैं, जिन्हें क्रमशः मित्रा, तारा, बला और दीपा कहा गया है। यद्यपि इन वर्गों में रहने वाली आत्माओं की दृष्टि असत् होती है, तथापिउनमें मिथ्यात्व की वह प्रगाढ़ता नहीं होती, जो अन्य आत्माओं में होती है। मिथ्यात्व की अल्पता होने पर इसी गुणस्थान के अन्तिम चरण में आत्मा पूर्ववर्णित यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनावृत्तिकरण नामक ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया करता है और उसमें सफल होने पर विकास के अगले चरण सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है। 2.सास्वादन-गुणस्थान यद्यपि सास्वादन-गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से विकासशील कहा जा सकता है, लेकिन वस्तुतः यहगुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्थाका द्योतक है। कोई भीआत्मा इसमें प्रथम गुणस्थान से विकास करके नहीं आती, वरन् जब आत्मा ऊपर की श्रेणियों से पतित होकर प्रथम गुणस्थान की ओर जाती है, तो इस अवस्था से गुजरती है। पतनोन्मुख आत्मा को गुणस्थान तक पहुंचने की मध्यावधि में जो क्षणिक (6 अवली) समय लगता है वही इस गुणस्थान का स्थिति - काल है। जिस प्रकार फल को वृक्ष से टूटकर पृथ्वी पर पहुँचने में समय लगता है, उसी प्रकार आत्मा की गिरावट में जो समय लगता है, वही समयावधि सास्वादन-गुणस्थान के नाम से जानी जाती है। जिस प्रकार मिष्ठान्न खाने के अनन्तर वमन होने पर वमित वस्तु का एक विशेष प्रकार का आस्वादन होता है, उसी प्रकार यथार्थ-बोध हो जाने पर मोहासक्ति के कारण जब पुनः अयथार्थता (मिथ्यात्व) का ग्रहण कियाजाता है, तो उसे ग्रहण करने के पूर्व थोड़े समय के लिए उस यथार्थता का एक विशिष्ट प्रकार का अनुभव बना रहता है। यही पतनोन्मुख अवस्था में होने वाला यथार्थता का क्षणिक आभास या आस्वादन ‘सास्वादन-गुणस्थान है। 3. सम्यक्-मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान या मिश्र-गुणस्थान (ढुलमुल यकीन) यह गुणस्थान भी विकास-श्रेणी का सूचक न होकर पतनोन्मुख अवस्था का ही सूचक है, जिसमें अवक्रान्ति करनेवाली पतनोन्मुख आत्मा चतुर्थ गुणस्थानसे पतित होकर आती है। यद्यपि उत्क्रान्ति मरनेवाली आत्माएँ भी प्रथम गुणस्थान से निकलकर तृतीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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