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________________ भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन 2. रसघात - कर्म - विपाक एवं बन्धन की प्रगाढ़ता (तीव्रता ) में कमी। 3. गुणश्रेणी - कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना, ताकि विपाककाल के पूर्व ही उनका फलभोग किया जा सके। 494 4. गुण-संक्रमण - कर्मों का अवान्तर - प्रकृतियों में रूपान्तर, अर्थात् जैसे दुःखद वेदना को सुखद वेदना में रूपान्तरित कर देना । 5. अपूर्वबंध - क्रियमाण - क्रियाओं के परिणामस्वरूप होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक एवं अल्पतर मात्रा में होना । (इ) अनावृत्तिकरण - आत्मा अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा राग और द्वेष की ग्रन्थियों का भेदन कर विकास की दिशा में अपना अगला चरण रखती है, यह प्रक्रिया अनावृत्तिकरण कहलाती है। इस भूमिका में आकर आत्मा शुद्ध आत्मस्वरूप पर रहे हुए मोह के आवरण को अनावरित कर अपने ही यथार्थ स्वरूप का दर्शन करती है। यही सम्यग्दर्शन भूमिका है, जिसमें सत्य अपने यथार्थ स्वरूप में साधक के सामने अभिव्यक्त हो जाता है। अनावृत्तिकरण में पुनः 1. स्थितिघात, 2. रसघात, 3. गुणश्रेणी, 4. गुणसंक्रमण और 5. अपूर्वबन्ध नामक प्रक्रिया सम्पन्न होती है, जिसे अन्तरकरण कहा जाता है । अन्तरकरण की इस प्रक्रिया में आत्मा दर्शनमोहनीय कर्म को प्रथमतः दो भागों में विभाजित करती है, साथ ही अनावृत्तिकरण के अन्तिम चरण में दूसरे भागों को भी तीन उपविभागों में विभाजित करती है, जिन्हें क्रमशः 1. सम्यक्त्व - मोह, 2. मिथ्यात्व - मोह और 3. मिश्र - मोह कहते हैं । सम्यक्त्व - मोह सत्य के ऊपर श्वेत कांच का आवरण है, जबकि मिश्र - मोह हल्के रंगीन कांच का और मिथ्यात्व - मोह गहरे रंग के कांच का आवरण है । पहले में सत्य के स्वरूप का दर्शन वास्तविक रूप में होता है, दूसरे में विकृत रूप में होता है, लेकिन तीसरे 1 सत्य पूरी तरह आवरित रहता है। सम्यग्दर्शन के काल में भी आत्मा गुण-संक्रमण नामक क्रिया करता है और मिथ्यामोह की कर्मप्रकृतियों को मिश्रमोह तथा सम्यक्त्वमोह में रूपान्तरित करता रहता है। सम्यक्दर्शन में उदयकाल की एक अन्तर्मुहूर्त्त की समय-सीमा समाप्त होने पर पुनः दर्शनमोह के पूर्व में विभाजित तीन वर्गों में से किसी भी वर्ग की कर्मप्रकृति का श्रेणी के अनुसार उदय हो सकता है। यदि प्रथम (उदय) फलभोग सम्यक्त्व - मोह का होता है, तो आत्मा विशुद्धाचरण करता हुआ विकासोन्मुख हो जाता है, लेकिन यदि मिश्रमोह अथवा मिथ्यात्वमोह का विपाक होता है, तो आत्मा पुनः पतनोन्मुख हो जाता है और अपने अग्रिम विकास के लिए उसे पुनः ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया करनी होती है। फिर भी, इतना तो निश्चित है कि वह एक सीमित समयावधि में अपने आदर्श को उपलब्ध कर ही लेती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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