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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास 493 कर्मों का अल्प स्थिति का एवं रूक्ष बन्ध करती है। यह नैतिक-चेतना के उदय की अवस्था है। यह एक प्रकार की आदर्शाभिमुखता है। (आ) अपूर्वकरण-यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा आत्मा में नैतिक-चेतना का उदय होता है; विवेक-बुद्धि और संयम-भावना का प्रस्फुटन होता है। वस्तुतः, यथाप्रवृत्तिकरण में वासनाओं से संघर्ष करने के लिए पूर्व-पीठिका तैयार होती है। आत्मा में इतना नैतिक साहस (वीर्योल्लास) उत्पन्न हो जाता है कि वह संघर्ष की पूर्व तैयारी कर वासनाओं से युद्ध करने के लिए सामने डट जाती है। कभी शत्रु को युद्ध के लिए ललकारने का भी प्रयास करती है, लेकिन वास्तविक संघर्ष प्रारम्भ नहीं होता । अनेक बार तो ऐसा प्रसंग आता है कि वासनारूपी शत्रुओं के प्रति मिथ्यामोह के जाग्रत हो जाने से, अथवा उनकी दुर्जेयता के अचेतन भय के वश, अर्जुन के समान यह आत्मा पलायन या दैन्यवृत्ति को ग्रहण कर मैदान से भाग जाने का प्रयास करती है, लेकिन जिन आत्माओं में वीर्योल्लासया नैतिक-साहस की मात्रा का विकास होता है, वे कृतसंकल्प हो संघर्षरत हो जाती हैं और वासनारूपी शत्रुओं के राग और द्वेषरूपी सेनापतियों के व्यूह का भेदन कर देती हैं। भेदन करने की क्रिया ही अपूर्वकरण है। राग और द्वेषरूपी शत्रुओं के सेनापतियों के परास्त हो जाने से आत्मा जिस आनन्दका लाभ करती है, वह सभी पूर्व अनुभूतियों से विशिष्ट प्रकार का या अपूर्व होता है । वस्तुतः, इस अवस्था में मानसिक तनाव और संशय पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं, अतः आत्माको एक अनुपम शान्ति का अनुभव होता है,यहीअपूर्वकरण है। अब आत्मा अपनी शक्ति को बटोरकर विकास के अग्रिम चरण के लिए प्रस्थित हो जाती है । वस्तुतः, यह अवस्था ऐसी है, जहां मानवीय-आत्मा जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त करती है। मनोविज्ञान की भाषा में चेतन अहं (Ego) वासनात्मक अहं (Id) पर विजय प्राप्त कर लेता है। यहाँ से अनात्म पर विजय यात्रा प्रारम्भ होती है। विकासगामी आत्मा को यहाँ प्रथम बार शान्ति का अनुभव होता है, इसलिए यह प्रक्रिया अपूर्वकरण कही जाती है। इस अपूर्वकरण की प्रक्रिया का प्रमुख कार्य राग और द्वेष की ग्रन्थियों का छेदन करना है, क्योंकि यही तनाव या दुःख के मूल कारण हैं । साधना के क्षेत्र में यही कार्य अत्यन्त दुष्कर है, क्योंकि यही वास्तविक संघर्ष की अवस्था है। मोह राजा के राजप्रासाद का यही वह द्वितीयद्वार है, जहाँसबसे अधिक बलवान् एवं सशस्त्र अंगरक्षक-दल तैनात है। यदि इन पर विजय प्राप्त कर ली जाती है, तो फिर मोहरूपी राजा पर विजय पाना सहज होता है। अपूर्वकरण की अवस्था में आत्मा कर्म-शत्रुओं पर विजय पाते हुए निम्न पांच प्रक्रियाएँ करती हैं - 1.स्थितिघात, 2. रसघात, 3. गुणश्रेणी, 4.गुण-संक्रमण और 5. अपूर्वबंध। 1. स्थितिघात-कर्मविपाक की अवधि में परिवर्तन करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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