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________________ 492 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन कर्मावरण का बहुलांश शिथिल हो जाता है, तो आत्मा यथाप्रवृत्तिकरणरूप शक्ति को प्राप्त होती है। यथाप्रवृत्तिकरण वस्तुतः एक स्वाभाविक घटना के परिणामस्वरूप होता है, लेकिन इस अवस्था को प्राप्त करने पर आत्मा में स्वनियंत्रण की क्षमता प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार एक बालक प्रकृति से ही चलने की शक्ति पाकर फिर उसी शक्ति के सहारे वांछित लक्ष्य की ओर प्रयाण कर उसे पा सकता है, वैसे ही आत्मा भी स्वाभाविक रूप में स्वनियंत्रण की क्षमताको प्राप्त कर आगे प्रयास करे, तो आत्मसंयम के द्वारा आत्मलाभकर लेता है। यथाप्रवृत्तिकरण अर्द्धविवेक की अवस्था में किया गया आत्मसंयम है, जिसमें व्यक्ति तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया एवं लोभ पर अंकुश लगाता है। जैनविचारणा के अनुसार, केवल पंचेन्द्रिय समनस्क (मन सहित) प्राणी ही यथाप्रवृत्तिकरण करने की योग्यता रखते हैं और प्रत्येक समनस्क प्राणी अनेक बार यथाप्रवृत्तिकरण करता भी है। जब प्राणी मन जैसी नियंत्रक-शक्ति को पा लेता है, तो स्वाभाविक रूप से ही वह उसके द्वारा अपनी वासनाओं पर नियंत्रण का प्रयास करने लगता है। प्राणीय-विकास में मन की उपलब्धि से ही बौद्धिकता एवं विवेक की क्षमता जाग्रत होती है और बौद्धिकता एवं विवेक की क्षमता से प्राणी वासनाओं पर अधिशासन करने लगता है। वासनाओं के नियंत्रण का यह प्रयास विवेक-बुद्धि का स्वाभाविक लक्षण है और यहीं से प्राणीय-विकास में स्वतंत्रता का उदय होता है। यहाँ प्राणी नियति का दास न होकर उस पर शासन करने का प्रयास करता है। यहीं से चेतना की जड़ (कर्म) पर विजय यात्रा एवं संघर्ष की कहानी प्रारम्भ होती है। इस अवस्था में चेतना आत्मा और जड़कर्म संघर्ष के लिए एक-दूसरे के सामने डट जाते हैं। आत्मा ग्रन्थि के सम्मुख हो जाता है। यथाप्रवृत्तिकरण की प्रक्रिया करने के पूर्व आत्मा जिन चारशक्तियों (लब्धियों) को उपलब्ध कर लेता है, वे हैं - 1. क्षयोपशम-पूर्वबद्ध कर्मों में कुछ कर्मों के फल का क्षीण हो जाना, अथवा उनकी विपाक-शक्ति का शमन हो जाना, 2. विशुद्धि, 3. देशना-ज्ञानीजनों के द्वारामार्गदर्शन प्राप्त करना और 4. प्रयोग-आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष कर्मों की स्थिति का एक क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम से कम हो जाना । जो आत्मा इस प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण नामक ग्रन्थि-भेद की क्रिया में सफल हो जाता है, वह मुक्ति की यात्रा के योग्य हो जाता है और जल्दी या देर से मुक्ति अवश्य प्राप्त कर लेता है। जो सिपाही शत्रुसेना के सामने डटने का साहस कर लेता है, वह कभी न कभी तो विजय-लाभ भी कर ही लेता है। विजय-यात्रा के अग्रिम दो चरण अपूर्वकरण और अनावृत्तिकरण कहे जाते हैं। वस्तुतः, यथाप्रवृत्तिकरण में आत्मा वासनाओं की शक्ति के सामने संघर्ष के लिए खड़ी होने का साहसकरती है, जबकि अन्य दो प्रक्रियाओं में वह वासनाओं और तद्जनित कों के ऊपर विजय-श्री का लाभ करती है। यथाप्रवृत्तिकरण की अवस्था में आत्मा अशुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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