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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास 491 लक्ष्य-उपलब्धि की यह प्रकिया जैन-साधना में ग्रन्थि- भेद कहलाती है। ग्रंथि-भेद का तात्पर्य आध्यात्मिक-विकास में बाधक प्रगाढ़ मोह एवं राग-द्वेष की वृत्तियों का छेदन करना है। अगले पृष्ठों में हम इसी विषय पर विचार करेंगे। आध्यात्मिक-विकासकी प्रक्रिया और ग्रन्थि-भेद जैन नैतिक-साधना का लक्ष्य स्वस्वरूप में स्थित होना या आत्म-साक्षात्कार करना है, लेकिन आत्म-साक्षात्कार के लिए मोहविजय आवश्यक है, क्योंकि आत्मा का शुद्ध स्वरूप इसी मोहसे आवरित है। मोह के आवरण को दूर करने के लिए साधक को तीन मानसिक-ग्रन्थियों का भेदन करना होता है। एक सरल उदाहरण लें। यह आत्मा जिस प्रासाद में रहता है, उस पर मोह का आधिपत्य है, मोह ने आत्मा को बन्दी बना रखा है। प्रसाद के तीन द्वारों पर उसने अपने प्रहरी लगा रखे हैं। प्रथम द्वार पर निःशस्त्र प्रहरी हैं। दूसरे द्वार पर सशस्त्र, सबल और दुर्जेय प्रहरी हैं और तीसरे द्वार पर पुनः निःशस्त्र प्रहरी हैं। वहाँ जाकर आत्म-देव के दर्शन-लाभ के लिए व्यक्ति को तीनों द्वारों से उनके प्रहरियों पर विजय-लाभ करते हुए गुजरना होता है। यह आत्मदेव का दर्शन ही आत्म-साक्षात्कार हैं, और यह तीन द्वार ही तीन ग्रन्थियाँ हैं और इन पर विजय-लाभ करने की प्रक्रिया ग्रन्थिभेद कहलाती है, जिसके क्रमशः नाम हैं-1.यथाप्रवृत्तिकरण 1 2. अपूर्वकरण और 3. अनिवृत्तिकरण। (अ) यथाप्रवृत्तिकरण-पंडित सुखलालजी के शब्दों में, अज्ञानपूर्वक दुःखसंवेदनाजनित अत्यल्प आत्मशुद्धि को जैन-शास्त्र में यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं।13 यथाप्रवृत्ति-करण आत्मदेव के राजप्रासाद का वह द्वार है, जिस पर निर्बल एवं निःशस्त्र द्वारपाल होता है। अनेक आत्माएँ इससंसाररूपी वन में भ्रमण करते हुए संयोगवश इस द्वार के समीप पहुंच जाती हैं और यदि मन नामक वस्त्र से सुसज्जित होती हैं, तो वह इस निर्बल, निःशस्त्र द्वारपाल को पराजित कर इस द्वार में प्रवेश पा लेती हैं। यथाप्रवृत्तिकरण प्रयास और साधना का परिणाम नहीं होता है, वरन् एक संयोग है, एक प्राकृतिक उपलब्धि है, फिर भी यह एक महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि आत्म--शक्ति के प्रकटन को रोकनेवाले या उसे कुण्ठित करनेवाले कर्म-परमाणुओं में जैन-विचारकों के अनुसार सर्वाधिक 70 क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम की काल-स्थिति मोहकर्म की मानी गई है और यह अवधि जब गिरि--- नदी-पाषाण-न्याय से घटकर मात्र 1 क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम रह जाती है, तब यथाप्रवृत्तिकरण होता है, अर्थात् जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह में गिरा हुआ पापा खण्ड प्रवाह के कारण अचेतन रूप में ही आकृति को धारण कर लेता है, वैसे ही शादी एवं मानसिक-दुःखों की संवेदना को झेलते-झेलते इस संसार में परिभ्रमण र जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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