________________
490
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
यथार्थ विवेक करना और दूसरा, स्वस्वरूप में स्थिति। दर्शन-मोह को समाप्त करने से यथार्थ-बोध प्रकट होता है और चारित्रमोहपर विजय पाने से यथार्थ-प्रयास का उदय होकर स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है। दर्शनमोह और चारित्रमोह में दर्शनमोह ही प्रबल है-यदि आत्मा इस दर्शनमोह अर्थात् यथार्थबोध के अवरोधक तत्त्व को भेदकर एक बार स्वस्वरूप का दर्शन कर लेता है, अर्थात् आत्मा को अपने गन्तव्य लक्ष्य का बोध हो जाता है, तो फिर वह स्वशक्ति से इस चारित्रमोह को भी परास्त कर स्वरूप-लाभयाआदर्श की उपलब्धि कर ही लेता है।
__ जैन-दर्शन यह मानता है कि आत्मा को स्वस्वरूप के लाभ या आध्यात्मिकआदर्श की उपलब्धि के लिए दर्शनमोह और चारित्रमोह से संघर्ष करना होता है। अशुभ वृत्तियों से संघर्ष विकास के लिए आवश्यक है, इसी संघर्ष से आत्मा की विजय-यात्रा प्रारम्भ होती है। जैन-विचारणा के अनुसार, आत्मा स्वभाव से विकास के लिए प्रयत्नशील है, फिर भी इस संघर्ष में सदैव जयलाभ ही नहीं करता है, वरन् कभी परास्त होकर पुनः पतनोन्मुख हो जाता है। दूसरे, इस संघर्ष में सभी आत्माएँ विजय-लाभ नहीं कर पाती हैं। कुछ आत्माएँ संघर्ष-विमुख हो जाती हैं, तो कुछ इस आध्यात्मिक-संघर्ष के मैदान में डटी रहती हैं और कुछ विजय-लाभ कर स्वस्वरूप को प्राप्त कर लेती हैं। विशेषावश्यकभाष्य में इन तीनों अवस्थाओं का सोदाहरण विवेचन है। 10 तीन प्रवासी अपने गन्तव्य की ओर जा रहे थे। मार्ग में भयानक अटवी में उन्हें चोर मिल गए। चोरों को देखते ही उन तीनों में से एक भाग खड़ा हुआ। दूसरा उनसे डरकर भागा तो नहीं, लेकिन संघर्ष में विजय-लाभन कर सका और परास्त होकर उनके द्वारा पकड़ा गया, लेकिन तीसरा असाधारण बल और कौशल्य से उन्हें परास्त कर अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गया। विकासोन्मुख आत्मा ही प्रवासी है। अटवी मनुष्य-जीवन है। राग और द्वेष-ये दो चोर हैं। जो आत्मा इन चोरों पर विजयलाभ करती है, वही अपने गन्तव्य को प्राप्त करने में सफल होती है। यहाँ पर हमें तीन प्रकार के व्यक्तियों का चित्र मिलता है। एक वे, जो आध्यात्मिक-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना के युद्धस्थल पर आते तो हैं, लेकिन साहस के अभाव में शत्रु की चुनौती का सामना न कर साधनारूपी युद्धस्थल से भाग खड़े होते हैं। दूसरे वे, जो साधनारूपी युद्धक्षेत्र में डटे रहते हैं, संघर्ष भी करते हैं, फिर भी कौशल के अभाव में शत्रु पर विजय-लाभ करने में असफल होते हैं। तीसरे वे, जो साहस के साथ कुशलतापूर्वक प्रयास करते हुए साधना के क्षेत्र में विजय श्री का लाभ करते हैं। वैदिक-चिन्तन में भी इस बात को इस प्रकार प्रकट किया गया है कि कुछ साधक साधना का प्रारम्भ ही नहीं कर पाते, कुछ उसे मध्य में ही छोड़ देते हैं, लेकिन कुछ उसका अन्त तक निर्वाह करते हुए अपने साध्य को प्राप्त करते हैं।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org