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आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास
आत्मा और 3. सर्वदर्शी - आत्मा भी कहते हैं। साधना की दृष्टि से हम इन्हें क्रमशः पतितअवस्था, साधक अवस्था और सिद्धावस्था भी कह सकते हैं। अपेक्षा-भेद से नैतिकता के आधार पर इन तीनों अवस्थाओं को 1. अनैतिकता की अवस्था, 2. नैतिकता की अवस्था और 3. अतिनैतिकता की अवस्था भी कहा जा सकता है। पहली अवस्थावाला व्यक्ति दुराचारी या दुरात्मा है, दूसरी अवस्थावाला सदाचारी या महात्मा है और तीसरी अवस्थावाला आदर्शात्मा या परमात्मा है। जैन दर्शन के गुणस्थान - सिद्धान्तों में प्रथम से तीसरे गुणस्थान तक बहिरात्मा की अवस्था का चित्रण है । चतुर्थ से बारहवें गुणस्थान तक अन्तरात्मा की अवस्था का विवेचन है। शेष दो गुणस्थान आत्मा के परमात्मस्वरूप को अभिव्यक्त करते हैं । पण्डित सुखलालजी इन्हें क्रमशः आत्मा की (1) आध्यात्मिकअविकास की अवस्था (2) आध्यात्मिक विकास-क्रम की अवस्था और (3) आध्यात्मिकपूर्णता या मोक्ष की अवस्था कहते हैं ।"
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प्राचीन जैनागमों में आत्मा की इस नैतिक एवं आध्यात्मिक - उत्क्रान्ति की यात्रा को गुणस्थान की पद्धति द्वारा बड़ी सुन्दरतापूर्वक स्पष्ट किया गया है, जो न केवल साधक की विकासयात्रा की विभिन्न मनोभूमियों का चित्रण करती है, वरन् विकासयात्रा के पूर्व की भूमिका से लेकर गन्तव्य आदर्श तक की समुचित व्याख्या भी प्रस्तुत करती है। जैन - दर्शन के अनुसार, आत्मा के स्वगुणों या यथार्थ स्वरूप को आवरण करने वाले कर्मों में मोह का आवरण ही प्रधान है। इस आवरण के हटते ही शेष आवरण सरलता से हटाए जा सकते हैं, अतः जैनाचार्यों ने आध्यात्मिक उत्क्रान्ति को अभिव्यक्त करनेवाले गुणस्थान - सिद्धान्त की विवेचना इसी मोहशक्ति की उत्कटता, मन्दता तथा अभाव के आधार पर की है। आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास का अर्थ है - आध्यात्मिक या नैतिक- पूर्णता की प्राप्ति । पारिभाषिक शब्दों में यह आत्मा का स्वरूप में स्थित हो जाना है। इसके लिए साधना के लक्ष्य या स्वरूप का यथार्थ बोध आवश्यक है। मोह की वह शक्ति, जो स्वस्वरूप या आदर्श
यथार्थबोध नहीं होने देती और जिसके कारण कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का यथार्थ भान नहीं हो पाता, उसे जैन- दर्शन में दर्शन - मोह कहते हैं और जिसके कारण आत्मा स्वस्वरूप में स्थित होने के लिए प्रयास नहीं कर पाता, अथवा नैतिक आचरण नहीं कर पाता, उसे चारित्रमोह कहते हैं । दर्शन - मोह विवेक-बुद्धि का कुण्ठन है और चारित्र - मोह सत्प्रवृत्ति का कुण्ठन है । जिस प्रकार व्यवहार - जगत् में वस्तु का यथार्थ बोध हो जाने पर ही उसकी प्राप्ति का प्रयास सफल होता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक - जगत् में भी सत्य का यथार्थ बोध होने पर उसकी प्राप्ति का प्रयास सफल होता है। आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया में आत्मा के दो प्रमुख कार्य हैं - पहला, स्वस्वरूप और परस्वरूप या आत्म और अनात्म का
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