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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास 495 ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का द्विविध रूप - यहाँ यह शंका हो सकती है कि ग्रन्थि-भेद की यह प्रक्रियातोसम्यग्दर्शन नामक चतुर्थ गुणस्थान की उपलब्धि के पूर्व प्रथम गुणस्थान में ही हो जाती है, फिर सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानों में होनेवाले यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनावृत्तिकरण कौन-से हैं ? वस्तुतः, ग्रन्थि-भेद की यह प्रक्रिया साधना के क्षेत्र में दो बार होती है। पहली, प्रथम गुणस्थान के अन्तिम चरण में और दूसरी, सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थान में, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि यह दो बार क्यों होती है ? और पहलीऔर दूसरी बार की प्रक्रिया में क्या अन्तर है ? वास्तविकता यह है कि जैन-दर्शन में बन्धन के प्रमुख कारण मोह की दो शक्तियाँ मानी गई हैं - 1. दर्शनमोह और 2. चारित्रमोह । दर्शनमोह यथार्थ दृष्टिकोण (सम्यक्दर्शन) का आवरण करता है और चारित्रमोह नैतिक-आचरण (सम्यक्चारित्र) में बाधा डालता है। मोह के इन दो भेदों के आधार पर ही ग्रन्थिभेद की यह प्रक्रिया भी दो बार होती है। प्रथम गुणस्थान के अन्त में होने वाली ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध दर्शनमोह के आवरण को समाप्त करने से है, जबकि सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थानों में होने वाली ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध चारित्रमोह अर्थात् अनैतिकता को समाप्त करने से है। पहली बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यक्दर्शन का लाभ होता है, जबकि दूसरी बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यक्चारित्र का उदय होता है। एक में वासनात्मक-वृत्तियों का निरोध होता है, दूसरी में दुराचरण का निरोध। एक में दर्शन (दृष्टिकोण) शुद्ध होता है, दूसरी से चारित्र शुद्ध होता है। जैन-साधना की पूर्णता दर्शनविशुद्धि में नहोकर चारित्रविशुद्धि में है, यद्यपि यह एक स्वीकृत तथ्य है कि दर्शनविशुद्धि के पश्चात् यदि उसमें टिकाव रहा, तो चारित्रविशुद्धि अनिवार्यतया होती है। सत्य के दर्शन के पश्चात् उसकी उपलब्धि एक अवश्यता है। यह बात इस प्रकार भी कही जा सकती है कि सम्यग्दर्शन का स्पर्श कर लेने पर आत्मा की मुक्ति अवश्य ही होती है। गुणस्थानका सिद्धान्त जैन--विचारधारा में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास-क्रम की 14 अवस्थाएँ मानी गई हैं - 1. मिथ्यात्व, 2. सास्वादन, 3. मिश्र, 4. अविरतसम्यग्दृष्टि, 5. देशविरतसम्यग्दृष्टि, 6. प्रमत्तसंयत, 7. अप्रमत्तसंयत (अप्रमत्तविरत), 8. अपूर्वकरण, 9. अनिवृत्तिकरण, 10. सूक्ष्मसम्पराय, 11. उपशान्तमोह, 12. क्षीणमोह, 13. सयोगीकेवली और 14. अयोगीकेवली। प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का क्रम दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है, जबकि पाँचवें से बारहवें गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यक्चारित्र से सम्बन्धित है। तेरहवाँ एवं चौदहवां गुणस्थान आध्यात्मिक-पूर्णता का द्योतक है। इनसे भी दूसरे और तीसरे गुणस्थानों का सम्बन्ध विकास-क्रम से न होकर वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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