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जैन- आचार के सामान्य नियम
सके, उसे रोकने के लिए विवेकवान् पुरुष उस-उस उपाय को काम में लाए। संवर की प्राप्ति के लिए उद्योग करनेवाले पुरुष को चाहिए कि वह क्षमा से क्रोध को, नम्रता से मान को, सरलता से माया को और निस्पृहता से लोभ को रोके । अखण्ड संयम - साधना के द्वारा इन्द्रियों की स्वच्छंद प्रवृत्ति से बलवान् बनने वाले, विष के समान विषयों को तथा विषयों की कामना को रोक दें। इसी प्रकार, तीनों गुप्तियों द्वारा तीनों योगों को, अप्रमाद से प्रमाद को और सावद्य-योग (पाप- पूर्ण व्यापारों) के त्याग से अव्रतों को दूर करें। सम्यग्दर्शन के द्वारा मिथ्यात्व की तथा शुभ भावना में चित्त की स्थिरता करके आर्त-रौद्र ध्यान को जीतना चाहिए। किस आस्रव का किस उपाय से निरोध किया जा सकता है, ऐसा चिन्तन बारबार करना संवर-भावना है। 159
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बौद्ध - परम्परा में संवर- भावना - बुद्ध का कथन है कि आँख का संवर उत्तम है, कान का संवर उत्तम है, प्राण का संवर उत्तम है, जीभ का संवर उत्तम है। काया, वाणी और मन का संवर भी उत्तम है। सब इन्द्रियों का संवर भी उत्तम है। जो सर्वत्र संवर करता है, वह दुःखों से छूट जाता है, 100 इसलिए भिक्षु को सदैव इस सम्बन्ध में स्मृतिवान् रहना चाहिए |
9. निर्जरा - भावना - जिन कर्मों का बन्ध पहले हो चुका है, उनको नष्ट करने उपायों का विचार करना निर्जरा-भावना है। निर्जरा-भावना का साधक उपस्थित होने वाले सुख-दुःखों को पूर्व कर्मबन्ध का प्रतिफल मानकर अनासक्त-भाव से धैर्यपूर्वक उन्हें भोगता है । दुःखों के कारण को निमित्त मात्र मानकर उसके प्रति द्वेष नहीं करता । उसी प्रकार, सुख की दशा में उसे पूर्व-कर्म का प्रतिफल मानकर किसी प्रकार का अहंकार नहीं करता। इस प्रकार, राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठकर मात्र सावधानीपूर्वक पूर्व कर्मों का क्षय करता है और उनके परिपाक के अवसर पर नए कर्मों का बन्ध नहीं होने देता। दूसरे रूप में, निर्जरा - भावना का साधक बाह्य और आभ्यन्तर- तपों के माध्यम से पूर्व-संचित कर्मों के नाश का विचार करता है। तप के सम्बन्ध में विस्तृत तुलनात्मक - विवेचन पूर्व में किया जा चुका है, उसे वहाँ देखा जा सकता है।
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10. धर्म - -भावना - धर्म के स्वरूप और उसकी आत्मविकास की शक्ति का विचार करना धर्म-भावना है। धर्म के वास्तविक स्वरूप का विचार करना आवश्यक है। एक जैनाचार्य धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिसमें राग और द्वेष न हो, स्वार्थ और ममत्व का अभाव हो, वही सत्य एवं कल्याणकारी धर्म है। इस प्रकार, धर्मं के वास्तविक स्वरूप का विचार करना और उसका पालन करना ही धर्म-भावना है 1 उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि संसार में एकमात्र शरण धर्म ही है, इसके सिवाय अन्य कोई रक्षक नहीं है । 11 जरा और मृत्यु के प्रवाह में वेग से डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म
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