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________________ 466 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन द्वीप ही उत्तम स्थान और शरणरूप है। 162 आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि दुर्गति में गिरते हुए जीवों को जो धारण करता है, बचाताहै, वहधर्म है। सर्वज्ञ के द्वारा कथित, संयम आदिके भेदसे दस प्रकार का धर्म ही मोक्ष प्राप्त कराता है। 163 धर्म उनका बन्धु है, जिनका संसार में कोई बन्धु नहीं है। धर्म उनका सखा है, जिनका कोई सखा नहीं है। धर्म उनका नाथ है, जिनका कोई नाथ नहीं है। अखिल जगत् के लिए एकमात्र धर्म ही रक्षक है। 164 बौद्ध-परम्परा में धर्म-भावना-धम्मपदमें कहा गया है कि धर्म के अमृतरस का पान करनेवाला सुख की नींद सोता है। चित्त प्रसन्न रहता है। पण्डित पुरुष आर्यों द्वारा प्रतिपादित धर्म-मार्ग पर चलता हुआआनन्दपूर्वक रहता है। 165 मनुष्य सदाचार-धर्म का पालन करे, बुरा आचरण न करे, धर्म का आचरण करनेवाला इस लोक में और परलोक में सुखपूर्वक रहता है। 166 ___ महाभारत में धर्म-भावना- महाभारत का वचन है कि धर्म से ही ऋषियों ने संसार-समुद्र को पार किया है। धर्म पर ही सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं। धर्म से ही देवताओं की उन्नति हुई है और धर्म में हीअर्थ की भी स्थिति है, 167 अतः मन को वश में करके धर्म को अपना प्रधान ध्येय बनाना चाहिए और सम्पूर्ण प्राणियों के साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिए, जैसा हम अपने लिए चाहते हैं। 168 11. लोक-भावना-लोक की रचना, आकृति, स्वरूप आदि पर विचार करने के लिए लोक-भावना है। जैन-दर्शन के अनुसार, यह लोक किसी का बनाया हुआ नहीं है और अनादिकाल से चला आ रहा है। आत्माएँ भी अनादिकाल से अपने शुभाशुभ कार्यों के अनुसार परिभ्रमण कर रही हैं। इस लोक के अग्रभाग पर सिद्ध स्थान है। सिद्ध स्थान के नीचे ऊपर के भाग में स्वर्ग और अधोभाग में नरक है। इसके मध्यभाग में तिर्यंच एवं मनुष्यों का निवास है। लोक की इस आकृति एवं स्थिति पर विचार करते हुए साधक सदैव यही सोचे कि उसका आचार ऐसा हो, जिससे उसकी आत्मा पतन के स्थानों को छोड़कर उर्ध्वलोक में जन्म ले, या लोकाग्र पर जाकर मुक्ति प्राप्त कर सके। यही इस भावना का सार ___12. बोधिदुर्लभ-भावना-बोधिदुर्लभ-भावना के द्वारा यह चिन्तन किया जाता है कि सन्मार्ग का जो बोध प्राप्त हुआ है, उसका सम्यक्आचरण करना अत्यन्त दुष्कर है। इस दुर्लभ बोध को पाकर भी सम्यक् आचरण के द्वारा आत्मविकास अथवा निर्वाणको प्राप्त नहीं किया, तो पुनः ऐसा बोध प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। जैन-विचार में चार चीजों की उपलब्धि अत्यन्त दुर्लभ कही गई है - संसार में प्राणी को मनुष्यत्व की प्राप्ति, धर्मश्रवण, शुद्ध श्रद्धा और संयम-मार्ग में पुरुषार्थ। 169 प्रथम तो, अत्यन्त कठिनाई से मानवशरीर की उपलब्धि होती है। जैनागमों में मानव जीवन की दुर्लभता का अनेक उदाहरणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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