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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
यह विचार करता है कि जिस देह के रूप और सौन्दर्य का हमें अभिमान है, जिस पर हम ममत्व करते हैं, वह अशुचि का भण्डार है। आचार्य कुन्दकुन्द इस देह की अशुचिता का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि यह शरीर कृमियों से भरा हुआ, दुर्गंधित, वीभत्स रूप वाला, म और मूत्र से पूरित, स्खलन एवं लगन स्वभाव से युक्त, रुधिर, मांस, मज्जा, अस्थि आदि अनेक अपवित्र वस्तुओं से बना हुआ है। अस्थियों पर मांस से लिप्त एवं त्वचा से आच्छादित सदाकाल अपावन है । 139 उत्तराध्ययनसूत्र में भी शरीर की अशुचिता एवं अशाश्वतता का निर्देश (19/13-15) है ।
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बौद्ध परम्परा में अशुचि - भावना - शरीर की अशुचिता का वर्णन बौद्धग्रन्थों में भी है। विशुद्धि-मार्ग में कहा गया है, “यदि इस शरीर के अन्दर का भाग बाहर आ जाए, तो अवश्य ही डण्डा लेकर कौवों और कुत्तों को रोकना पड़े।" 140 धम्मपद में भी आचार्य कुन्दकुन्द की शैली में शरीर की अशुचिता के बारे में कहा है, “यह शरीर
जीर्ण रोगों का घर है, क्षण-भंगुर है, दुर्गन्ध का ढेर है और किसी समय खण्ड-खण्ड हो जाएगा, क्योंकि जीवन का अन्त ही मरण है। इन कबूतर के रंगवाली हड्डियों के जाल को देखकर, जो शरद ऋतु में फेंकी हुई अपथ्य लौकी के समान है - कौन उनमें मोह-ममता कर सकता है ? यह शरीर हड्डियों का घर है, जिसे मांस और रुधिर से लेपा गया है, जिसमें बुढ़ापा, मृत्यु, अभिमान और मोह निवास करते हैं।
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कर।
महाभारत में अशुचि - भावना - आचार्य शंकर ने भी चर्पटपंजरिकास्तोत्र में कहा है - "यह देह मांस एवं वसादि विकारों का संग्रह है, हे मन ! तू बार-बार विचार ।" 142 महाभारत के अनुसार, यह शरीर जरामरण एवं व्याधि के कारण होने वाले दुःखों युक्त है, फिर ( बिना आत्म-साधना के) निश्चिन्त होकर कैसे बैठा जा सकता है। 143 इस प्रकार, बौद्ध एवं वेदान्त-मतों में शरीर की अशुचिता एवं अशाश्वतता का विचार देहासक्ति को कम कर विरागता की वृत्ति के उदय के लिए किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी काय - स्वभाव का चिन्तन संवेग और वैराग्य के लिए है । 144
5. अशरण- भावना - अशरण - भावना का तात्पर्य यह है कि विकराल मृत्यु के पाश से कोई भी बचाने में समर्थ नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि जिस प्रकार मृग को सिंह पकड़कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्त समय में मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है। उस समय माता, पिता, भाई आदि कोई भी नहीं बचा सकते | 145
बौद्ध - परम्परा में अशरण - भावना - धम्मपद में भी यही बात कही गई है। पुत्र तथा पशुओं में आसक्त मन वाले मनुष्य को लेकर मृत्यु इस तरह चली जाती है, जैसे सोए हुए गांव को महान् जल-प्रवाह बहा ले जाता है। मृत्यु से पकड़े हुए मनुष्य की रक्षा के लिए न
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