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________________ जैन-आचार के सामान्य नियम 461 चाहिए कि वह अपनी आत्मा को अधोगति में न पहुँचाए, क्योंकि वह जीवात्मा आपही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है, अर्थात् और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है। जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, वह आप ही अपना मित्र है और जिसके द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में वर्तता है। 134 महाभारत में भी एकत्व-भावना के संबंध में सुन्दर विचार उपलब्ध हैं। कहा गया है कि मैं तो अकेला हूँ। न तो दूसरा कोई मेरा है और न मैं किसी दूसरे का हूँ। मैं उस पुरुष को नहीं देखता, जिसका मैं होऊँ तथा उसको भी नहीं देखता, जो मेरा हो। यह शरीर भी मेरा नहीं, अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है। ये सब वस्तुएँ जैसे मेरी हैं, वैसे ही दूसरों की भी हैं। ऐसा सोचकर, इनके लिए मेरे मन में कोई व्यथा नहीं होती, ऐसी बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक । मनुष्य स्त्री-पुत्र आदि कुटुम्ब के लिए चोरी आदि पाप-कर्मों का संग्रह करता है, किन्तु इस लोक और परलोक में उसे अकेले ही उन समस्त कर्मों का क्लेशमय फल भोगना पड़ता है। 135 3. अन्यत्वभावना-जगत् के समस्त पदार्थों से अपने को अलग मानना और उस भिन्नता का बार-बार विचार करना ही अन्यत्व-भावना है। अन्यत्व-भावना का मुख्य लक्ष्य भेद-विज्ञान के द्वारा आत्मानात्म का विवेक उत्पन्न कर देना है। बौद्ध-दर्शन में अन्यत्व- भावना कासुन्दर चित्रण नैरात्म्य-दर्शन के रूप में हुआ है। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन सम्यकज्ञान के प्रसंग में भेद-विज्ञान सम्बन्धी चर्चा में हो चुका है, अत: यहां विस्तार में जाना अपेक्षित नहीं है। अन्यत्व-भावना का मुख्य लक्ष्य साधक की बाह्यआसक्ति को कम करना है। एक आचार्य ने कहा है कि हे आत्मन्! तूप्रति समय ऐसा विचार कर कि पुत्र, मित्र, स्त्री, परिवार, सांसारिक-पदार्थ और वैभव तुझसे भिन्न हैं। 136 जो आत्मा अपने को शरीर आदि से भिन्न देखता है, उसे शोकरूप शल्य तनिक भी दुःख नहीं देते, क्योंकि शोक का कारण ममता है। जिसे कोई ममत्व नहीं, उसे कोई दुःख भी नहीं। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि माता-पिता, बन्धु-बांधव एवं पुत्र आदि सभी इष्टजन मेरे नहीं हैं। यह आत्मा उनसे सम्बन्धित नहीं है। वे सभी अपने-अपने कर्मवशात् संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं।'137 गीता एवं महाभारत में अन्यत्व-भावना-महाभारत में कहा गया है कि पुत्रपौत्र, जाति-बांधव, सभी संयोगवश मिल जाते हैं, उनके प्रति कभी आसक्ति नहीं बढ़ाना चाहिए, क्योंकि उनसे विछोह होना निश्चित है। 138 गीता के चौदहवें अध्याय में क्षेत्रक्षेत्रज्ञ के माध्यम से अन्यत्व-भावना का सुन्दर बोध कराया गया है। 4. अशुचि-भावना - शरीर-सम्बन्धी मोह को नष्ट करने के लिए जैनविचारकों ने अशुचि-भावना का विधान किया है।अशुचि-भावना में प्रमुख रूपसे साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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