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________________ 460 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध एवं वैदिक-परम्पराओं में अनित्य-भावना-बुद्ध ने अपने उपासकों को अनेक प्रकार से अनित्यता का बोध कराया है। संयुत्तनिकाय में अनित्य-वर्ग में भगवान् बुद्ध कहते हैं - भिक्षुओं! चक्षु अनित्य हैं, श्रोत्र अनित्य है, घ्राणअनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य है, मन अनित्य है। जोअनित्य है, वह दुःख है। 126 धम्मपद में कहा है कि संसार के सब पदार्थ अनित्य हैं, इस तरह जब बुद्धिमान पुरुष जान जाता है, तब वह दुःख नहीं पाता। यही मार्ग विशुद्धि का है। 27 महाभारत में कहा है कि जीवन अनित्य है, इसलिए युवा अवस्था में ही धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। 128 2. एकत्वभावना- प्राणी अकेला जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। अपने शुभाशुभ कर्मों को भी वह अकेला ही भोगता है। 12 मृत्यु के समय समस्त सांसारिक धन-वैभव को तथा कुटुम्ब को छोड़कर व्यक्ति अकेला ही प्रयाण करता है। एक संस्कृत कवि ने कहा है कि धन भूमि में, पण पशुशाला में रह जाते हैं, स्त्री गृहद्वार तक, स्नेहीजन श्मशान तक और देह चिता तक रहती है। प्राणी अकेला ही अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ परलोक- गमन करता है।130 एक जैनाचार्य कहते हैं कि मैं अकेला हूँ, मेराऔर कोई नहीं, मैं भी किसी का नहीं, इस प्रकार अदीन मन होकर आत्मा को अनुशासित करें। इस प्रकार, एकत्वभावना एक ओर साधक के आत्मविश्वास को जाग्रत करती है और पराङ्मुखताको समाप्त करती है तथा दूसरी ओर यह भी बोध कराती है कि जिन कुटुम्ब-परिवार के लोगों के लिए वह पाप-कर्म का संचय करता है, वे सभी उसके सहायक नहीं हो सकते । इस प्रकार, एकत्वभावना का मूल लक्ष्य व्यक्ति को यह बताना है कि पुरुषार्थही उसका एकमात्र सहायक है, अपना हित और अहित-दोनों ही उसके अपने हाथ में हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में इसका अत्यन्त ही सुन्दर विवेचन उपलब्ध है। उसमें कहा है कि आत्मा ही सुखों और दुःखों का कर्ता है और यही कर्म क्षय करने वाला है। श्रेष्ठ आचार वाली आत्मा मित्र और दुराचारवाली आत्मा शत्रु है। दुराचार में प्रवृत्त आत्मा अपना जितना अनिष्ट करती है, उतना अनर्थ गला काटनेवाला शत्रु भी नहीं करता। ऐसा दयाविहीन पुरुष मृत्यु के मुख में जाने पर अपने दुराचार को जानेगा और फिर पश्चाताप करेगा। 131 बौद्ध-परम्परामें एकत्व-भावना-बौद्ध-धर्म में भी एकत्व-भावना का विचार उपलब्ध है। धम्मपद में कहा गया है कि अपने से किया हुआ, अपने से उत्पन्न हुआ पापही दुर्बुद्धि मनुष्य को विदीर्ण कर देता है, जैसे वज्र पत्थर की मणि को काट देता है। 132 अपने पाप का फल मनुष्य स्वयं भोगता है। पाप न करने पर वह स्वयं शुद्ध रहता है। प्रत्येक पुरुष का शुद्ध अथवा अशुद्ध रहना उसी पर निर्भर है। कोई किसी दूसरे को शुद्ध नहीं कर सकता।133 गीता एवं महाभारत में एकत्व-भावना- गीता में कहा है कि मनुष्य को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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