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जैन-आचार के सामान्य नियम
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और श्रमण आचार-पद्धति में की गई है।
तप
तपनैतिक-जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। अपने व्यापक अर्थों में तप नैतिक -आचरण के सभी पक्षों का समावेश कर लेता है। सामान्य रूप से तप की विवेचना 'सम्यक्-तप' नामक अध्याय में की गई है। भावना(अनुप्रेक्षा)
जैन-परम्परा में गृहस्थ और श्रमण-दोनों उपासकों के लिए कुछ चिन्तन करने का विधान है। इस चिन्तन को अनुप्रेक्षा या भावना कहा गया है। जैन-दर्शन में भावना मन का वह भावात्मक-पहलू है, जो साधक को उसकी वस्तु-स्थिति का बोध कराता है। जैनपरम्परा में भावनाओं का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि दान, शील, तप एवं भावना के भेद से धर्म चार प्रकार का है, किन्तु इन चतुर्विधधर्मों में भावना ही महा-प्रभावी है, अर्थात् संसार में जितने भी सुकृत्य हैं, धर्म हैं, उनमें केवल भावना ही प्रधान है, भावनाविहीन धर्मशून्य है। वास्तव में, भावना ही परमार्थस्वरूप है। भाव ही धर्म का साधक कहा गया है और तीर्थंकरों ने भी भाव को ही सम्यक्त्व का मूलमंत्र बताया है। कोई भी पुरुष कितना ही दान करे, चाहे समग्र जिन-प्रवचन का अध्ययन कर डाले, उग्र से उग्र तपस्या करे, भूमि पर शयन करे, दीर्घकाल तक मुनिधर्म का पालन करे, लेकिन यदि उसके मानस में भावनाओं की उद्भावना नहीं होती, तो उसकी समस्त क्रियाएँ उसी प्रकार निष्फल होती हैं, जिस प्रकार से धान्य के छिलके का बोना निष्फल है। 123 आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में कहते हैं कि चाहे व्यक्ति श्रमण हो अथवा गृहस्थ, भाव ही उसके विकास में कारणभूत है। भावरहित अध्ययन से और श्रवण से क्या लाभ ? 124 जैन-आचार्यों ने भावनाओं को मोक्ष का सोपान कहा है।
जैन-धर्म में भावनाएँ या अनुप्रेक्षाएँ 12 कही गई हैं - 1. अनित्य, 2. अशरण, 3. एकत्व, 4. अन्यत्व, 5. संसार, 6. लोक, 7. अशुचि, 8. आम्रव, 9.संवर, 10. निर्जरा, 11. धर्म और 12. बोधि।
1.अनित्य-भावना-संसार के प्रत्येक पदार्थको अनित्य एवं नाशवान् मानना अनित्य-भावना है। धन, सम्पत्ति, कुटुम्ब, परिवार, अधिकार, वैभव, सभी कुछ क्षणभंगुर है। लक्ष्मी संध्याकालीनलालिमा के समान अनित्य है। यह जीवन भी कमल-पत्र पर पड़े हुए ओस-बिन्दु के समान अल्प समय में ही समाप्त हो जानेवाला है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में, समग्र सांसारिक-वैभव, इन्द्रियाँ, रूप, यौवन, बल, आरोग्य, सभी इन्द्र-धनुष के समान क्षणिक हैं, संयोगजन्य है और इसलिए व्यक्ति को समग्र सांसारिक-उपलब्धियों की अनित्यता एवं संयोगजन्यता को समझकर उनके प्रति आसक्त नहीं रहना चाहिए।125
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