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________________ 458 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन दी जानेवाली वस्तु और दान का पात्र - इन चारों बातों के आधार पर ही दान का समुचित मूल्यांकन सम्भव है। गीता में भी दान के सम्बन्ध में कहा गया है कि वही दान सात्विक है, बुद्धि से दिया जाता है और जिसमें देश, काल और पात्र का विवेक रखा जाता है तथा जिसमें प्रत्युपकार की कोई भावना नहीं होती। इसके विपरीत, अयोग्य को फल की आकांक्षा से जो दान दिया जाता है, वह राजस - दान है। जिस दान में देश, काल व पात्र का विवेक नहीं है तथा जो दान अवहेलनापूर्वक दिया जाता है, वह तामस - दान है। 121 वैसे, जहाँ तक दान के मूल्य की बात है, जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों ही परम्पराओं में उसे स्वीकार किया गया है। भारतीय परम्परा में दान पारस्परिक सहयोग का सूचक है। समाज के विभिन्न घटकों की विशेष क्षेत्रों में योग्यताएँ होती हैं, अतः यह आवश्यक है कि उनकी योग्यताओं का लाभ समाज के दूसरे घटकों को भी मिलता रहे, इसीलिए भारतीय परम्परा में दान की योजना है। वह जिसके पास बुद्धि है, अपनी बुद्धि का वितरण करे, जिसके पास शक्ति है, वह दूसरों के रक्षण का कार्य करे, इसी प्रकार, जिसके पास धन है, वह दूसरों को जीविका साधन प्रदान करे । इस प्रकार, दान सही अर्थ में पारस्परिक सहयोग का सूचक है । वर्तमान युग में सहयोग के मुख्य चार क्षेत्र माने जाते हैं - 1. जीविका 2. शिक्षा 3. स्वास्थ्य 4. अभय या सुरक्षा सहयोग के इन चार क्षेत्रों को ही प्राचीनकाल में दान-चतुष्टयी कहा जाता था : 1. जीविका 1. आहारदान 2. शिक्षा 2. ज्ञानदान (शास्त्रदान ) 3. औषध - दान 3. स्वास्थ्य 4. अभय या सुरक्षा 4. अभय-दान दान सामाजिक नैतिकता का एक महत्वपूर्ण अंग है, जबकि तप, शील और भाव तीनों ही वैयक्तिक-नैतिकता से संबंधित हैं, यद्यपि तप में वैयावृत्य (सेवा) के रूप में एक सामाजिक पक्ष भी निहित है। शील शील का सम्बन्ध सदाचरण से है। शील के सम्बन्ध में सामान्य रूप से विवेचना सम्यक् चारित्र नामक अध्याय में और सदाचरण के विभिन्न नियमों के रूप में गृहस्थ- -धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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