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________________ 454 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन से सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं । जो भिक्षा मिलती है उससे सन्तुष्ट रहते है और वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं । निवास के लिए मिले हुए स्थान में सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं। एकान्त में रहते हैं और एकान्त के गुण बताते हैं । इन पाँच कारणों से भगवान् के श्रावक भगवान् का मान रखते हैं और उनके आश्रय में रहते हैं। 106 महाभारत में अकिंचनता-महाभारत में कहा है कि यदि तुम सबकुछ त्यागकर किसी वस्तु का संग्रह नहीं रखोगे, तो सर्वत्र विचरते हुए सुख का ही अनुभव करोगे, क्योंकि जो अकिंचन होता है - जिसके पास कुछ नहीं रहता है, वह सुख से सोता और जागता है। संसार में अकिंचनता ही सुख है। वही हितकारक, कल्याणकारी और निरापद है। आकिञ्चन्य व्यक्ति को किसी भी प्रकार के शत्रु का खटका नहीं है। अकिंचनता को लाघव भी कहा जा सकता है, लाघव का अर्थ है-हलकापन। लोभ या आसक्ति आत्मा पर एक प्रकार का भार है। कामना या आसक्तिमन में तनाव उत्पन्न करती है, यह तनावमन को बोझिल बनाता है। भूत और भविष्य की चिन्ताओं का भार मनुष्य व्यर्थ ही ढोया करता है। व्यक्ति जितनेजितने अंश में इनसे ऊपर उठकर अनासक्त बनता है, उतनी ही मात्रा में मानसिक तनाव से बचकर प्रमोद का अनुभव करता है। निर्लोभ आत्मा को कर्म-आवरणसे हल्का बनाता है, मन और चेतना के तनाव को समाप्त करता है, इसीलिए उसको लाघव कहा जाता है। भौतिक-वस्तुओं की कामना ही नहीं, वरन यश, कीर्ति, पूजा, सम्मान आदि की लालसा भी मनुष्य को अधःपतन की ओर ले जाती है। दशवैकालिकसूत्र के अनुसार, जो पूजा, प्रतिष्ठा, मान और सम्मान की कामना करते हैं, वे अनेक छद्म पापों का सृजन करते है। 107 कामना चाहे भौतिक-वस्तुओं की हो, या मान-सम्मान आदि अभौतिक तत्त्वों की, वह एक बोझ है, जिससे मुक्त होना आवश्यक है। सूत्रों में लाघव के साथ ही साथ मुक्ति (मुत्ती) शब्द का प्रयोग भी हुआ है। सद्गुण के रूप में मुक्ति का अर्थ दुश्चिन्ताओं, कामनाओं और वासनाओं से मुक्त मनःस्थिति ही है। उपलक्षण से मुत्ती का अर्थसंतोष भी होता है। सन्तोष की वृत्ति आवश्यक सद्गुण है। उसके अभाव में जीवन की शान्ति चौपट हो जाती है। बौद्ध-धर्म और गीता की दृष्टि में निर्लोभता मनुष्य का आवश्यक सद्गुण है। बुद्ध का कथन है कि सन्तोष ही परम धन है।' 108 गीता में कृष्ण कहते हैं, सन्तुष्ट व्यक्ति मेरा प्रिय है। 109 8. ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन महाव्रतों एवं अणुव्रतों के सन्दर्भ में किया गया है। श्रमण के लिए समस्त प्रकार के मैथुन का त्याग आवश्यक माना गया है। गृहस्थउपासक के लिए स्वपत्नी-सन्तोष में ही ब्रह्मचर्य की मर्यादा स्थापित की गई है। विषयासक्ति चित्त को कलुषित करती है, मानसिक-शान्ति भंग करती है, एक प्रकार के मानसिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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