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________________ जैन-आचार के सामान्य नियम 453 निर्जरा के लिए तपस्या आवश्यक मानी गई है। तप के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक यथा-स्थान विवेचन किया जा चुका है। 8.त्याग अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करना और प्राप्त भोगों में विमुख होना त्याग है। नैतिक-जीवन में त्याग आवश्यक है। बिना त्याग के नैतिकता नहीं टिकती, अतएव साधु के लिए त्यागधर्म का विधान किया गया है। त्याग से इन्द्रिय और मन के निरोध का अभ्यास किया जाता है। संयम के लिए त्याग आवश्यक है। सामान्य रूप से त्याग का अर्थ छोड़ना होता है, अतएव साधुता तभी संभव है, जब सुख-साधनों एवं गृह-परिवार का त्याग किया जाए। साधु-जीवन में जो कुछ उपलब्ध हैं, या नियमानुसार ग्राह्य हैं, उनमें से कुछ को नित्य छोड़ते रहना या त्याग करते रहना जरूरी है। गृहस्थ-जीवन के लिए भी त्याग आवश्यक है। गृहस्थको न केवल अपनी वासनाओं और भोगों की इच्छाका त्याग करना होता है, वरन् अपनी सम्पत्ति एवं परिग्रह से भी दान के रूप में त्याग करते रहना आवश्यक है, इसलिए त्याग गृहस्थ और श्रमण-दोनों के लिए ही आवश्यक है। त्याग का विस्तृत विवेचन षडावश्यक-प्रकरण में हो चुका है। त्याग से संग्रह-लालसा को नियंत्रित करके सामाजिक-हित साधा जा सकता है। वस्तुतः, लोक-मंगल के लिए त्याग-धर्म का पालन आवश्यक है। न केवल जैन–परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में भी त्यागभावना पर बल दिया गया है। बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिरक्षित ने इस सम्बन्ध में काफी विस्तार से विवेचन किया है। 7. अकिंचनता मूलाचार के अनुसार, अकिंचनता का अर्थ परिग्रह का त्याग है। लोभ या आसक्ति-त्याग के भावनात्मक-तथ्य को क्रियात्मक-जीवन में उतारना आवश्यक है। अकिंचनताकेद्वारा इसीअनासक्त-जीवन का बाह्य-स्वरूप प्रकट किया जाता है। संग्रहवृत्ति से बचना ही अकिंचनता का प्रमुख उद्देश्य है। दिगम्बर या जिनकल्पी-मुनि की दृष्टि यही बताती है कि समग्र बाह्य-परिग्रह का त्याग ही अकिंचनता की पूर्णता है। संत कबीरदास ने भी कहा है उदर समाता अन्न लहे, तनहि समाता चीर । अधिकाहि संग्रह ना करे, ताको नाम फकीर॥ अकिंचनताऔर बुद्ध-बौद्ध-ग्रन्थ चूलनिदेशपालि में कहा है कि अकिंचनता और आसक्तिरहित होने से बढ़कर कोई शरणदाता दीप नहीं है। 105 बुद्ध ने स्वयं अपने जीवन में अकिंचनता को स्वीकार किया था। उदायी भगवान् की प्रशंसा करते हुए कहता है कि भगवान् अल्पाहार करने वाले हैं और अल्पाहार के गुण बताते हैं । वे कैसे भी चीवरों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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