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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
होना, सत्य किस प्रकार बोलना-यह विवेचन व्रत-प्रकरण में किया गया है। धर्म के प्रसंग में 'सत्य' का कथन यह व्यक्त करता है कि साधक को अपने व्रतों एवं मर्यादाओं की प्रतिज्ञा के प्रति निष्ठावान रहकर उनका उसी रूप में पालन करना सत्यधर्म है। इस प्रकार, यहाँ यह कर्तव्य-निष्ठा को व्यक्त करता है, जैसे हरिश्चन्द्र के प्रसंग में कर्त्तव्य-निष्ठा को ही सत्यधर्म के रूप में माना गया है। साधक का अपने प्रति सत्य (ईमानदार) होनाही सत्यधर्म का पालन है। आचरण के सभी क्षेत्रों में पवित्रता ही सत्यधर्म है। कहा भी गया है कि मन, वचन और काया की एकरूपता सत्य है, अर्थात् जैसा विचार, वैसी ही वाणी और आचरण रखे, यही सत्यता है। वास्तव में यही नैतिक-जीवन की पहचान भी है।
___ महावीर कहते हैं कि जो निष्ठापूर्वक सत्य की आज्ञा का पालन करता है, वह बन्धन से मुक्त हो जाता है। सत्य के सन्दर्भ में महावीर का दृष्टिकोण यही है कि व्यक्ति के जीवन में (अन्तस् और बाह्य ) एकरूपता होनी चाहिए। ” अन्तरात्मा के प्रति निष्ठावान् होना ही सत्यधर्म है। 6.संयम
जैन-दर्शन के अनुसार, पूर्व-संचित कर्मों के क्षय के लिए तप आवश्यक है और संयम से भावी कर्मों के आस्रव का निरोध होता है। संयम मनोवृत्तियों, कामनाओं और इन्द्रिय-व्यवहार का नियमन करता है। संयम का अर्थ दमन नहीं, वरन् उनको सम्यक् दिशा में योजित करना है। संयम एक ओर अकुशल, अशुभ एवं पापजनक व्यवहारों से निवृत्ति है, तो दूसरी ओर, शुभ में प्रवृत्ति है । दशवैकालिकसूत्र में कहा है कि अहिंसा, संयम और तपयुक्तधर्म ही सर्वोच्च शुभ (मंगल) है। जैन-आचार्यों ने संयम के अनेक भेद बताए हैं, विस्तार-भय से उनका विवेचन संभव नहीं है। पांच आसव-स्थान, चार कषाय, पाँच इन्द्रियों एवं मन, वाणी और शरीर का संयम प्रमुख है।
संयम और बौद्ध-दृष्टिकोण-बुद्ध का कथन है कि प्राज्ञ एवं बुद्धिमान भिक्षुके लिए सर्वप्रथम आवश्यक है-इन्द्रियों पर विजय, सन्तुष्टता तथा भिक्षु-अनुशासन में संयम से रहना। 100 शरीर, वाणी और मन का संयम उत्तम है। सर्वत्र संयम करना उत्तम है। जो सर्वत्र संयम करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है।
गीता में संयम-गीता में कहा कि श्रद्धावान्, तत्पर और संयतेन्द्रिय ही ज्ञान प्राप्त करता है। 102 जो संयमी है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है। 103 योगीजन संयमरूप अग्नि में इन्द्रियों का हवन करते हैं। 104 7. तप
तपजैन-साधना का एक आवश्यक अंग है। जैन--परम्परा के अनुसार, कर्मों की
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