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________________ जैन-आचार के सामान्य नियम 455 तनाव को उत्पन्न करती है और शारीरिक-दृष्टि से रोग का कारण बनती है, इसलिए यह माना गया है कि अपनी-अपनी मर्यादा के अनुकूल गृहस्थ और श्रमण को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। बौद्ध-परम्परामें ब्रह्मचर्य-बौद्ध-परम्परा में भी ब्रह्मचर्य-धर्म का महत्व स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। उसमें भी श्रमण-साधक के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य और गृहस्थसाधक के लिए स्वपत्नी-संतोष की मर्यादाएँ स्थापित की गई हैं।110 गीता में ब्रह्मचर्य-गीता में ब्रह्मचर्य को शारीरिक-तप कहा गया है। 111 परमतत्त्व की उपलब्धि के लिए ब्रह्मचर्य को आवश्यक माना गया और यह बताया गया है कि जो ब्रह्मचर्य-व्रत में स्थित होकर मेरी उपासना करता है, वह शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है।112 वैदिक-परम्परा में दस धर्म (सद्गुण) वैदिक-परम्परा में भी थोड़े- बहुत अन्तर से इन सद्गुणों का विवेचन पाया जाता है। हिन्दू-धर्म में हमें दो प्रकार के धर्मों का विवेचन उपलब्ध होता है - एक, सामान्य धर्म और दूसरे, विशेषधर्म। सामान्यधर्मवे हैं, जिनका पालन सभी वर्ण एवं आश्रमों के लोगों को करना चाहिए, जबकि विशेष धर्मवे हैं, जिनका पालन वर्ण-विशेष या आश्रम-विशेष के लोगों को करना होता है। सामान्यधर्म की चर्चा अति प्राचीनकाल से होती आई है। मनु ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह-इन पांच को सभी वर्णाश्रम वालों का धर्म बताया है। 113 प्रसंगान्तर से उन्होंने इन दस सामान्यधर्मों की भी चर्चा की है, यथा-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध। 114 इस सूची में क्षमा, शौच, इन्द्रियनिग्रह और सत्य ही ऐसे हैं, जो जैन-परम्परा के नामों से पूरी तरह मेल खाते हैं, शेष नाम भिन्न ही हैं । महाभारत के शान्तिपर्व में अक्रोध, सत्यवचन, संविभाग, क्षमा, प्रजनन, शौच और तप-इन दस सद्गुणों का विवेचन है। विष्णुधर्मसूत्र में 14 गुणों का वर्णन है, जिनमें अधिकांश यही हैं। महाभारत के आदिपर्व में धर्म की निम्न दस पत्नियों का उल्लेख है - कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया , बुद्धि, लज्जा और मति।115 इसी प्रकार, श्रीमद्भागवत में भी धर्म की श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, हवी और मूर्ति-इन तेरह पत्नियों का उल्लेख है। 16 वस्तुतः, इन्हें गुणों, धर्म की पत्नियां कहने का अर्थ इतना ही है कि इनके बिना धर्म अपूर्ण रहता है। इसी प्रकार, श्रीमद्भागवत में धर्म के पुत्रों का भी उल्लेख है। धर्म के पुत्र हैं- शुभ, प्रसाद, अभय, सुख, मुह, स्मय, योग, दर्प, अर्थ, स्मरण, क्षेम और प्रश्रय।।17 वस्तुतः, सद्गुणों का एक परिवार है और जहां एक सद्गुण भी पूर्णता के साथ प्रकट होता है, वहां उससे सम्बन्धित दूसरे सद्गुण भी प्रकट हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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