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________________ जैन आचार के सामान्य नियम लिए अपेक्षित है। स्थानांग 63 और समवायांग 4 में दस श्रमण-धर्मों के रूप में इन्हीं सद्गुणों का उल्लेख हुआ है, यद्यपि स्थानांग और समवायांग की सूची आचारांग से थोड़ी भिन्न है । उसमें दस धर्म हैं - क्षांति (क्षमा), मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास। इस सूची में शौच का अभाव है। शांति, विरति, उपशम और निवृत्ति के स्थान पर नामान्तर से क्षांति, मुक्ति, संयम और त्याग का उल्लेख हुआ है, जबकि सत्य, त्याग और ब्रह्मचर्यवास इस सूची में नए हैं। बारस्स-3 - अनुवेक्खा एवं तत्त्वार्थ में भी श्रमणाचार के प्रसंग में ही दस धर्मों का उल्लेख हुआ है। तत्त्वार्थ की सूची में लाघव के स्थान पर आकिंचन्य का उल्लेख हुआ है, यद्यपि दोनों का अर्थ समान ही है। दूसरे, तत्त्वार्थ में मुक्ति स्थान पर शौच का उल्लेख हुआ है। इन दोनों में अर्थ-भेद भी है। चाहे इन धर्मों (सद्गुणों) का उल्लेख श्रमणाचार के प्रसंग में ही अधिक हुआ है, किन्तु आचारांग ( 1/6/ 5) और पद्मनन्दीकृत पंचविंशतिका (6/59) के अनुसार इनका पालन गृहस्थ और श्रमण- दोनों के लिए अपेक्षित है। इनके क्रम और नामों को लेकर जैन आचार-ग्रन्थों में थोड़ा-बहुत मतभेद पाया जाता है, फिर भी इनकी मूल भावना में कोई विशेष अन्तर नहीं है । प्रस्तुत विवेचन तत्त्वार्थ के आधार पर कर रहे हैं। तत्त्वार्थ में निम्न दस धर्मों का उल्लेख है 5 - (1) क्षमा, (2) मार्दव, (3) आर्जव, (4) शौच, (5) सत्य, (6) संयम, ( 7 ) तप, (8) त्याग, (9) अकिंचनता और (10) ब्रह्मचर्य । 1. क्षमा - 447 66 क्षमा प्रथम धर्म है । दशवैकालिकसूत्र के अनुसार क्रोध प्रीति का विनाशक है। क्रोध- - कषाय के उपशमन के लिए क्षमा-धर्म का विधान है। क्षमा के द्वारा ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है। 7 जैन- परम्परा में अपराधी को क्षमा करना और स्वयं के अपराधों के लिए, जिसके प्रति अपराध किया गया है, उससे क्षमा-याचना करना साधक का परम कर्तव्य है। जैन-साधक का प्रतिदिन यह उद्घोष होता है कि मैं सभी प्राणियों को क्षमा करता हूँ और सभी प्राणी मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें। सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है। " महावीर का श्रमण-साधकों के लिए यह आदेश था कि साधुओं ! यदि तुम्हारे द्वारा किसी का अपराध हो गया है, तो सबसे पहले क्षमा माँगो । जब तक क्षमायाचना न कर लो, भोजन मत करो, स्वाध्याय मत करो, शौचादि कर्म भी मत करो, यहाँ तक कि अपने मुँह का थूक भी गले से नीचे मत उतारो। अपने प्रधान शिष्य गौतम हुए आहार को रखवाकर पहले आनन्द श्रावक से क्षमा-याचना के लिए भेजना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर की दृष्टि में क्षमा- -धर्म का कितना अधिक महत्व था । " जैन - परम्परा के अनुसार, प्रत्येक साधक को प्रातः काल एवं सायंकाल, पक्षान्त में, चातुर्मास के अन्त में और संवत्सरी - पर्व पर सभी प्राणियों से क्षमा-याचना करनी होती है। जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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