SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 446 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन निश्चय है, जब दुराचरण से विरत होने के लिए केवल उसे नहीं करना, इतना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसके नहीं करने का आत्म-निश्चय भी आवश्यक है। जैन धर्म की मान्यता के अनुसार, दुराचरण नहीं करनेवाला व्यक्ति भी जब तक दुराचरण नहीं करने की प्रतिज्ञा नहीं लेता, तब तक दुराचण के दोष से मुक्त नहीं है। प्रतिज्ञा के अभाव में मात्र परिस्थितिगत विवशताओं के कारण जो दुराचार में प्रवृत्त नहीं है, वह वस्तुतः दुराचरण के दोष से मुक्त नहीं है। वृद्ध वेश्या के पास कोई नहीं जाता, तो इतने मात्र से यह वेश्यावृत्ति से निवृत्ति नहीं मानी जा सकती। कारागार में पड़ा हुआ चोर चौर्य-कर्म से निवृत्त नहीं है। प्रत्याख्यान दुराचार से निवृत्त होने के लिए किया जानेवाला दृढ़ संकल्प है। उसके अभाव में नैतिक-जीवन में प्रगति सम्भव नहीं है। स्थानांगसूत्र में प्रत्याख्यान-शुद्धि के लिए पाँच बातों का विधान है1. श्रद्धान-शुद्ध, 2. विनय - शुद्ध, 3. अनुभाषण-शुद्ध 4. अनुपालन-शुद्ध और 5. भाव-शुद्ध। इन पाँचों की उपस्थिति में ही गृहीत प्रतिज्ञाशुद्ध होती है और नैतिक-प्रगति में सहायक होती है। गीता में त्याग- गीता में प्रत्याख्यान के स्थान पर त्याग के सम्बन्ध में कुछ विवेचन उपलब्ध है। गीता में तीन प्रकार कात्याग कहा गया है- 1. सात्विक, 2. राजस और 3. तामस। 1. तामस - नियम-कर्म का त्याग करना योग्य नहीं है, इसलिए मोह से उसका त्याग करना तामस-त्याग है। 2. राजस - सभी कर्म दुःखरूप हैं, ऐसा समझकर शारीरिक-क्लेश के भय से कर्मों का त्याग करना राजस-त्याग है। 3.सात्विक-शास्त्र - विधि से नियत किया हुआ कर्त्तव्य-कर्म करते हुए उसमें आसक्ति और फल का त्याग कर देना सात्विक- त्याग है। 61 इस प्रकार, हमदेखते हैं कि जैन, बौद्ध एवं गीता के आचारदर्शनों में षट्आवश्यकों का विवेचन प्रकारान्तर से वर्णित है। दशविधधर्म (सद्गुण) जैन-आचार्यों ने दस प्रकार के कर्मों (सद्गुणों) का वर्णन किया है, जो कि गृहस्थ और श्रमण-दोनों के लिए समान रूप से आचरणीय हैं । आचारांग, मूलाचार, बारस्सअणुवेक्खा, स्थानांग, समवायांग और तत्त्वार्थ के साथ-साथ परवर्ती अनेक ग्रन्थों में भी इन धर्मों का वर्णन विस्तार से उपलब्ध होता है। यहाँ धर्म शब्द का अर्थ सद्गुण या नैतिक-गुण ही अभिप्रेत है। सर्वप्रथम हमें आचारांग-सूत्र में आठ सामान्य धर्मों का उल्लेख उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया है कि जो धर्म में उत्थित, अर्थात् तत्पर है, उनको और जोधर्म में उत्थित नहीं हैं, उनको भी निम्न बातों का उपदेश देना चाहिए - शांति, विरति (विरक्ति), उपशम, निवृत्ति, शौच (पवित्रता), आर्जव, मार्दव और लाघव इस प्रकार, उसमें इनकी साधना गृहस्थ और श्रमण-दोनों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy