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जैन-आचार के सामान्य नियम
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नहीं। इस प्रकार, मुक्ति के लिए देहाध्यास का छूटना आवश्यक है और देहाध्यास छोड़ने के लिए कायोत्सर्ग भी आवश्यक है।
___कायोत्सर्ग की मुद्रा - कायोत्सर्ग तीन मुद्राओं में किया जा सकता है - 1. जिनमुद्रा में खड़े होकर, 2. पद्मासन या सुखासन से बैठकर और 3. लेटकर। कायोत्सर्ग की अवस्था में शरीर को शिथिल करने का प्रयास करना चाहिए।
कायोत्सर्ग के प्रकार-जैन-परम्परा में कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं- 1. द्रव्य और 2. भाव। द्रव्य-कायोत्सर्ग शारीरिक चेष्टा-निरोध है और भाव-कायोत्सर्ग ध्यान है। इस आधार पर जैन आचार्यों ने कायोत्सर्ग की एक चौभंगी दी है। 1. उत्थित-उत्थितकाय-चेष्टा के निरोध के साथध्यान में प्रशस्त विचार का होना। 2. उत्थित-निविष्टकायचेष्टा का निरोध तो हो, लेकिन विचार (ध्यान) अप्रशस्त हो। 3. उपविष्ट-उत्थित - शारीरिक-चेष्टाओं का पूरी तरह निरोध नहीं हो पाता हो, लेकिन विचार-विशुद्धि हो। 4. उपविष्ट- निविष्ट-न तो विचार (ध्यान) विशुद्धि हो और न शारीरिक-चेष्टाओं का निरोध ही हो । इनमें पहला और तीसरा प्रकार ही आचरणीय है।
कायोत्सर्ग के दोष - कायोत्सर्ग सम्यक् प्रकार से सम्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि कायोत्सर्ग के दोषों से बचा जाए। प्रवचनसारोद्धार में कायोत्सर्ग के 19 दोष वर्णित हैं - 1. घोटक-दोष, 2. लता-दोष, 3. स्तंभकुड्य-दोष, 4. माल-दोष, 5. शबरी-दोष, 6. वधू-दोष, 7. निगड-दोष, 8. लम्बोत्तर-दोष, 9. स्तन-दोष, 10. उर्द्धिका-दोष, 11. संयती-दोष, 12. खलीन-दोष, 13. वायस-दोष, 14. कपित्यदोष, 15. शीर्षोत्कम्पित-दोष, 16. मूक-दोष, 17. अंगुलिका-भ्रूदोष, 18. वारुणीदोष और 19. प्रज्ञा-दोष। इन दोषों का सम्बन्ध शारीरिक एवं आसनिक-अवस्थाओं से है। इन दोषों के प्रति सावधानी रखते हुए कायोत्सर्ग करना चाहिए।
बौद्ध-परम्परा में कायोत्सर्ग-बौद्ध-परम्परा में भी देह-व्युत्सर्ग की धारणा स्वीकृत है। आचार्य शान्तिरक्षित कहते हैं कि सब देहधारियों को जैसे सुख हो, वैसे यह शरीर मैंने (निछावर) कर दिया है। वे अब चाहे इसकी हत्या करें, निन्दा करें, अथवा इस पर धूल फेंके, चाहे खेलें, हंसे और विलास करें। मुझे इसकी क्या चिन्ता? मैंने शरीर उन्हें देही डाला है। वस्तुतः, कायोत्सर्ग ध्यान-साधना का आवश्यक अंग है।।
गीता में कायोत्सर्ग-गीता में कायोत्सर्ग की विधिध्यान योग केसन्दर्भ में देखी जा सकती है। गीता में कहा गया है कि शुद्धभूमि में कुशा, मृगछालाऔर वस्त्र हैं, उपरोपरि जिसके ऐसे अपने आसन को न अति ऊँचाऔर न अति नीचा स्थिर स्थापित करके काया, शिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किए हुए दृढ़ होकर, अपने नासिका के अग्रभाग को देखकर अन्य दिशाओं को नदेखता हुआ और ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थिर रहता
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