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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
है, वह भी जैन प्रतिक्रमण-विधि का एक संक्षिप्त रूपही है। संध्या के संकल्प-वाक्य में ही साधक यह संकल्प करता है कि मैं आचरित पापों के क्षय के लिए परमेश्वर के प्रति इस उपासना को सम्पन्न करता हूँ । यजुर्वेद के उस मन्त्र का मूल आशय भी यही है कि मेरे मन, वाणी, शरीर से जो भी दुराचरण हुआ हो, उसका मैं विसर्जन करता हूँ। 50
पारसी-धर्म में भी पाप-आलोचन की प्रणाली स्वीकार की गई है। खोरदेहअवस्ता में कहा गया है कि मैंने मन से जो बुरे विचार किए, वाणी से जो तुच्छ भाषण किया और शरीर से जो हलका काम किया, इत्यादि प्रकार से जो-जो गुनाह किए, उन सबके लिए मैं पश्चाताप करता हूँ। अभिमान, गर्व, मरे हुए लोगों की निन्दा करना, लोभ, लालच, बेहद गुस्सा, किसी की बढ़ती देखकर जलना, किसी पर बुरी निगाह करना, स्वच्छन्दता, आलस्य, कानाफूसी, पवित्रता का भंग, झूठी गवाही, चोरी, लूट-खसोट, व्यभिचार, बेहद शौक करना, इत्यादि जो गुनाह मुझसे जाने-अनजाने हुए हों और जो गुनाह साफ दिल से मैंने प्रकट न किए हों, उन सबसे मैं पवित्र होकर अलग होता हूँ।1 ईसाई-धर्म में भी पापदेशना आवश्यक मानी गई है। जेम्स ने 'धार्मिक-अनुभूति की विविधताएँ' नामक पुस्तक में इसका विवेचन किया है। जैन, बौद्ध, वेदान्त, खिस्तीऔर पारसी-धर्म की परम्पराओं में इस सम्बन्ध में बहुत साम्य है। 5. कायोत्सर्ग
कायोत्सर्गशब्द का शाब्दिक-अर्थ है -शरीर का उत्सर्ग करना, लेकिन जीवित रहते हुए शरीर का त्याग सम्भव नहीं। यहाँ शरीर-त्याग का अर्थ है-शारीरिक-चंचलता एवं देहासक्ति का त्याग। किसी सीमित समय के लिए शरीर के ऊपर रहे हुए ममत्व का परित्याग कर शारीरिक क्रियाओं की चंचलता को समाप्त करने का जो प्रयास किया जाता है, वह कायोत्सर्ग है। जैन साधना में कायोत्सर्ग का महत्व बहुत अधिक है। प्रत्येक अनुष्ठान के पूर्व कायोत्सर्ग की परम्परा है। वस्तुतः, देहाध्यास को समाप्त करने के लिए कायोत्सर्ग आवश्यक है। कायोत्सर्ग शरीर के प्रति ममत्व-भाव को कम करता है। प्रतिदिन जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह चेष्टा-कायोत्सर्ग है, अर्थात् उसमें एक निश्चित समय के लिए समग्र शारीरिक-चेष्टाओं का निरोध किया जाता है एवं उस समय में शरीर पर होने वाले उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन किया जाता है। आचार्य भद्रबाहु आवश्यकनियुक्ति में शुद्ध कायोत्सर्ग के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि चाहे कोई भक्तिभाव से चन्दन लगाए, चाहे कोई द्वेषवश बसूले से छीले, चाहे जीवन रहे, चाहे उसी क्षण मृत्युआजाए, परन्तु जो साधक देह में आसक्ति नहीं रखता है, उक्त सब स्थितियों में समभाव रखता है, वस्तुतः, उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध होता है। देहव्युत्सर्ग के बिना देहाध्यास का छूटना संभव नहीं, जब तक देहाध्यास या देह-भाव नहीं छूटता, तब तक मुक्ति भी सम्भव
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