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जैन- आचार के सामान्य नियम
प्रतिक्रमण है । यह विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित है। आचार्य भद्रबाहु ने जिन-जिन तथ्यों का प्रतिक्रमण करना चाहिए, इसका निर्देश आवश्यकनिर्युक्ति में किया है। उनके अनुसार, (1) मिथ्यात्व, (2) असंयम, (3) कषाय एवं (4) अप्रशस्त कायिक, वाचिक एवं मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रकारान्तर से आचार्य ने निम्न बातों का प्रतिक्रमण करना भी अनिवार्य माना है - (1) गृहस्थ एवं श्रमणउपासक के लिए निषिद्ध कार्यों का आचरण कर लेने पर, (2) जिन कार्यों के करने का शास्त्र में विधान किया गया है, उन विहित कार्यों का आचरण न करने पर, (3) अश्रद्धा एवं शंका उपस्थित हो जाने पर और (4) असम्यक् एवं असत्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने पर अवश्य प्रतिक्रमण करना चाहिए।
जैन - परम्परा के अनुसार, जिनका प्रतिक्रमण किया जाना चाहिए, उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार है -
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(अ) 25 मिथ्यात्वों, 14 ज्ञानातिचारों और 18 पापस्थानों का प्रतिक्रमण सभी को करना चाहिए ।
(ब) पंच महाव्रतों, मन, वाणी और शरीर के असंयम तथा गमन, भाषण, याचना, ग्रहण- निक्षेप एवं मलमूत्र विसर्जन आदि से सम्बन्धित दोषों का प्रतिक्रमण श्रमणसाधकों को करना चाहिए।
(स) पांच अणुव्रतों, 3 गुणव्रतों, 4. शिक्षाव्रतों में लगने वाले 75 अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती - श्रावकों को करना चाहिए।
(द) संलेखणा के पाँच अतिचारों का प्रतिक्रमण उन साधकों के लिए है, जिन्होंने संलेखणा - व्रत ग्रहण किया हो ।
श्रमण प्रतिक्रमण - सूत्र और श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र में सम्बन्धित सम्भावित दोषों की विवेचना विस्तार से की गई है। इसके पीछे मूल दृष्टि यह है कि उनका पाठ करते हुए आचरित सूक्ष्मतम दोष भी विचार- पथ से ओझल न हों ।
प्रतिक्रमण के भेद - साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के दो भेद हैं- 1. श्रमण- प्रतिक्रमण और 2. श्रावक - प्रतिक्रमण । कालिक आधार पर प्रतिक्रमण के पाँच 1 भेद हैं - (1) दैवसिक - प्रतिदिन सायंकाल के समय पूरे दिवस में आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना दैवसिक-प्रतिक्रमण है । (2) रात्रिक- प्रतिदिन प्रातःकाल के समय सम्पूर्ण रात्रि के आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना रात्रिक-प्रतिक्रमण है। (3) पाक्षिक पक्षान्त में अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण पक्ष में आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना पाक्षिक-प्रतिक्रमण
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