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भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
है । (4) चातुर्मासिक- कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा एवं आषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने के आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण है । (5) सांवत्सरिक - प्रत्येक वर्ष संवत्सरी - महापर्व के दिन वर्ष भर के पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमण और महावीर
प्रतिक्रमण जैन आचार-दर्शन की एक महत्वपूर्ण परम्परा है। महावीर की साधनाप्रणाली में प्रतिक्रमण नामक आवश्यक कर्म पर अत्यधिक जोर दिया गया है। महावीर की धर्म-देशना सप्रतिक्रमण-धर्म कही जाती है। ऐसा माना जाता है कि पार्श्वनाथ की परम्परा मैं असंयम अथवा पाप का आचरण होने पर साधक उसकी आलोचना के रूप में प्रतिक्रमण कर लेता था, लेकिन महावीर ने साधकों के प्रमाद को दृष्टिगत रखते हुए इस बात पर अधिक बल दिया कि चाहे पापाचरण हुआ हो या न हुआ हो, फिर भी नियमित रूप से प्रतिक्रमण करना चाहिए। साधनात्मक जीवन में सतत जाग्रति के लिए महावीर ने इसे अनिवार्य माना और साधकों को यह निर्देश दिया कि प्रतिदिन दोनों संध्याओं में, अर्थात् सूर्यास्त और सूर्योदय के समय अपने सम्पूर्ण आचार-व्यवहार का चिन्तन किया जाए और उसमें लगे हुए दोषों का आलोचन किया जाए। श्वेताम्बर - परम्परा में जो प्रतिक्रमण - विधि सम्प्रति प्रचलित है, उस पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर की साधना-प्रणाली में क्यों प्रतिक्रमण - विधि पर बहुत जोर दिया गया है ? इस विधि के अनुसार, साधक को प्रथम ध्यान में समग्र आचरण का परिशीलन करना होता है, तत्पश्चात् वह ग्रहण किए हुए व्रतों एवं उनमें होने वाले सम्भावित दोषों (अतिचारों) का स्मरण करता है और फिर दूसरे ध्यान में उनके आधार पर अपने आचरण का विश्लेषण कर प्रत्याख्यान के द्वारा उनसे निवृत्त हो स्वस्थान पर लौट आता है। वर्तमान परम्परा में ध्यान में जो 'लोगस्स' का पाठ किया जाता है, वह बहुत ही परवर्ती युग की घटना है। जब ध्यान में साधक का मन अत्यधिक चंचल रहने लगा होगा और वह अपने आचरण का विश्लेषण करने में सक्षम नहीं रहा होगा, तो ऐसी स्थिति में आचार्यों ने 'लोगस्स' का पाठ करने का निर्देश दिया होगा ।
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बौद्ध परम्परा और प्रतिक्रमण
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तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ऐसा लगता है कि प्रतिक्रमण की परम्परा न्यूनाधिक रूप में सभी परम्पराओं में रही है। बौद्ध-धर्म में प्रतिक्रमण के स्थान पर प्रतिकर्म, प्रवारणा और पाप - देशना नाम मिलते हैं । बुद्ध की दृष्टि में पापदेशना का महत्वपूर्ण स्थान है । वे कहते हैं, खुला हुआ पाप लगा नहीं रहता, अर्थात् पापाचरण की आलोचना करने पर व्यक्ति पाप के भार से हल्का हो जाता है। 47 बौद्ध आचार - दर्शन में प्रवारणा के नाम से पाक्षिक-प्रतिक्रमण की परम्परा स्वीकार की गई है। बोधिचर्यावतार में तो आचार्य शान्तिदेव
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