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________________ 438 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन आचार्य हेमचन्द्र प्रतिक्रमण का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि शुभ योग से अशुभयोग की ओर गए हुए अपने-आपको पुनः शुभयोग में लौटालाना प्रतिक्रमण है। आचार्य हरिभद्र ने प्रतिक्रमण की व्याख्या में इन तीन अर्थों का निर्देश किया है - (1) प्रमादवश स्वस्थान से परस्थान (स्वधर्म से परस्थान, परधर्म) में गए हुए साधक का पुनः स्वस्थान पर लौट आनायह प्रतिक्रमण है। अप्रमत्त चेतना का स्व-चेतना-केन्द्र में स्थित होना स्वस्थान है, जबकि चेतना का बहिर्मुख होकर पर-वस्तु पर केन्द्रित होना पर-स्थान है। इस प्रकार, बाह्यदृष्टि से अन्तर्दृष्टि की ओर आना प्रतिक्रमण है। (2) क्षयोपशमिक-भाव से औदयिक-भाव में परिणत हुआ साधक जब पुनः औदयिक-भाव से क्षयोपशमिक-भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। (3) अशुभ आचरण से निवृत्त होकर मोक्षफलदायक शुभ आचरण में निःशुल्क भाव से प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है। आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिए हैं - (1) प्रतिक्रमण- पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना, अथवा परस्थान में गए हुए साधक का पुनः स्वस्थान में लौट आना। (2) प्रतिचरण-हिंसा, असत्य आदिसे निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर होना। (3) परिहरण- सब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों एवंदुराचरणों का त्याग करना। (4) वारण-निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति नहीं करना। बौद्ध-धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने वाली क्रिया को प्रवारण कहा गया है। (5) निवृत्ति - अशुभ भावों से निवृत्त होना। (6) निन्दा-गुरुजन, वरिष्ठ-जन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा समझना तथा उसके लिए पश्चाताप करना। (7) गर्हा-अशुभ आचरण को गर्हित समझना, उससे घृणा करना। (8) शुद्धि-प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिए उसे शुद्धि कहा गया है। प्रतिक्रमण किसका-स्थानांगसूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है - (1) उच्चार-प्रतिक्रमण-मल आदि का विसर्जन करने के बाद ईर्या (आने-जाने में हुई जीवहिंसा) का प्रतिक्रमण करना उच्चार-प्रतिक्रमण है। (2) प्रश्रवण-प्रतिक्रमण-पेशाब करने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण करना प्रश्रवण-प्रतिक्रमण है। (3) इत्वर-प्रतिक्रमण - स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना इत्वर-प्रतिक्रमण है। (4) यावत्कथिक-प्रतिक्रमण-सम्पूर्ण जीवन के लिए पाप से निवृत्त होना यावत्कथिक-प्रतिक्रमण है। (5) यत्किंचिन्मिथ्याप्रतिक्रमण-सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी से किसी भी प्रकार का असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस भूल को स्वीकार कर लेना और उसके प्रति पश्चाताप करना यत्किंचिन्मिथ्या-प्रतिक्रमण है। (6) स्वप्नांतिक-प्रतिक्रमणविकार-वासनारूप कुस्वप्न देखने पर उसके सम्बन्ध में पश्चाताप करना स्वप्नान्तिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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