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________________ जैन-आचार के सामान्य नियम 437 में श्रमण जीवन की वरिष्ठता और कनिष्ठता ही वन्दन का प्रमुख आधार है, यद्यपि दोनों परम्पराओं में दीक्षा या उपसम्पदा की दृष्टि से वरिष्ठ श्रमणी को भी कनिष्ठ या नवदीक्षित श्रमण को वंदन करने का विधान है। गृहस्थ-साधकों के लिए सभी श्रमण, श्रमणी तथा आयु में बड़े गृहस्थ वंदनीय हैं। वन्दन के सम्बन्ध में बुद्ध-वचन है कि पुण्य की अभिलाषा करता हुआ व्यक्ति वर्ष भर जो कुछ यज्ञ व हवन लोक में करता है, उसका फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चौथा भाग भी नहीं होता, अतः सरलवृत्ति महात्माओं को अभिवादन करना ही अधिक श्रेयस्कर है। सदा वृद्धों की सेवा करने वाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएँ वृद्धि को प्राप्त होती हैं - आयु, सौन्दर्य, सुख तथा बल। धम्मपद का यह श्लोक किंचित् परिवर्तन के साथ मनुस्मृति में भी पाया जाता है। उसमें कहा है कि अभिवादनशील और वृद्धों की सेवा करनेवाले व्यक्ति की आयु, विद्या, कीर्ति और बल-ये चारों बातें सदैव बढ़ती रहती हैं। 40 गीता भी वन्दन (प्रणाम) को साधना का आवश्यक अंग मानती है, तभी तो गीताशास्त्र के अन्त में मां नमस्कुरु (18/65)' कहकर श्रीकृष्ण ने वंदन का निर्देश किया है। भागवतपुराण के अनुसार, नवधा-भक्ति में वंदन भी भक्ति का एक प्रकार है।" वन्दन-क्रिया के सम्बन्ध में जैन-आचार्यों ने काफी गहराई से विचार किया है। आवश्यकनियुक्ति में वन्दन के 32 दोष वर्णित हैं 42 - 1. अनादृत, 2.स्तब्ध, 3. प्रविद्ध, 4. परिपिण्डित, 5. टोलगति, 6. अंकुश, 7. कच्छ-परिगत, 8. मत्स्योवृत्त, 9. मनसाप्रद्विष्ट 10. वेदिकाबद्ध, 11. भय, 12. भजमान, 13. मैत्री, 14. गौरव, 15. कारण, 16. स्तैन्य, 17. प्रत्यनीक, 18. रुष्ट, 19. तर्जित, 20. शठ, 21. हीलित, 22. विपरि-कुंचित, 23. दृष्टादृष्ट, 24. श्रृंग, 25. कर, 26. मोचन, 27. आश्लिष्टअनाश्लिष्ट, 28.ऊन, 29. उत्तरचूड़ा, 30. मूक, 31. ढड्डर, 32. चुड्ली। विस्तारभय से इनकी व्याख्या सम्भव नहीं है। संक्षेप में, इतना ही कहा जा सकता है कि वन्दन करते समय स्वार्थभाव, आकांक्षा, भय और अनादर का भाव होना, योग्य सम्मानसूचक वचनों का सम्यक् प्रकार से उच्चारण नहीं करना तथा शारीरिक रूप से सम्मान-विधि का परिपालन नहीं करना आदि वन्दन के दोष हैं। उपर्युक्त दोषों से रहित वन्दन के लिए निर्दिष्ट अवसरों पर वंदन करना-यह साधक का आवश्यक कर्तव्य है। 4. प्रतिक्रमण ___ मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता है, अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, उन सबकी निवृत्ति के लिए कृत पापों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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