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________________ 416 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन आदर्श जैन-श्रमण का स्वरूप बुद्धिमान् पुरुषों के उपदेश से, अथवा अन्य किसी निमित्त से गृहस्थाश्रम को छोड़कर जो त्यागी भिक्षु सदैव ज्ञानी महापुरुषों के वचनों में लीन रहता है, उनकी आज्ञानुसार ही आचरण करता है, नित्य चित्त समाधि में लगाता है, स्त्रियों के मोहजाल में नहीं फँसता और वमन किए हुए भोगों को फिर भोगने की इच्छा नहीं करता, वही आदर्श भिक्षु है। जो साधु ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर के उत्तम वचनों में रुचि रखते हुए सूक्ष्म तथा स्थूल-दोनों प्रकार के षट् जीवनिकायों (प्रत्येक प्राणीसमूह) को आत्मवत् मानता है, पांच महाव्रतों का धारक होता है और पांच प्रकार के पापाचारों (मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद तथा अशुभयोग के व्यापार) से रहित होता है, वही आदर्श साधु है। जो ज्ञानी साधु, क्रोध, मान, माया और लोभ का सदैव वमन करता रहता है, ज्ञानी पुरुषों के वचनों में अपने चित्त को स्थिर लगाए रहता है और सोना, चांदी, इत्यादिधन को छोड़ देता है, वही आदर्श साधु है। जो मूढ़ताको छोड़कर अपनी दृष्टि को शुद्ध (सम्यक्दृष्टि) रखता है ; मन, वचन और काय का संयम रखता है; ज्ञान, तप और संयम में रहकर तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय करने का प्रयत्न करता है, वही आदर्श भिक्षु है तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के आहार, पानी, खाद्य तथा स्वाद्य आदि सुन्दर पदार्थों की भिक्षाको कल या परसों के लिए संचय करके नहीं रखता और नदूसरों से रखवाता ही है, वही आदर्श भिक्षु है। जो साधु कलहकारिणी, द्वेषकारिणी तथापीडाकारिणी कथा नहीं कहता, निमित्त मिलने पर भी किसी पर क्रोध नहीं करता, इन्द्रियों को निश्चल रखता है, मन को शान्त रखता है, संयम में सर्वदा लीन रहता है तथा उपशम-भाव को प्राप्त कर किसी का तिरस्कार नहीं करता, वही आदर्श भिक्षु है। जो कानों को काँटे के समान दुःख देने वाले आक्रोश वचनों, प्रहारों और अयोग्य उपालम्भों (उलाहनों) कोशान्तिपूर्वक सह लेता है, भयंकर एवं प्रचंड गर्जना के स्थानों में भी जो निर्भय रहता है और सुख तथा दुःख को समभावपूर्वक भोग लेता है, वही आदर्श भिक्षु है। जो साधुमास आदि की प्रतिमा, याने अभिग्रह स्वीकार कर श्मशान में अत्यन्त भयंकर दृष्यों को देखकर भी नहीं डरता है तथा मूलगुण आदि में और तपों में रत रहता है और ममता से शरीर को भी वर्तमान और भविष्य के लिए नहीं चाहता है, वह भाव-भिक्षु है। जो साधु अनेक बार कायोत्सर्ग करता है, अर्थात् शरीर की ममता को छोड़कर शोभा को त्यागता है तथा गाली सुनकर, मार खाकर या कुत्ते आदि के काटने पर भी जो पृथ्वी के समानक्षमाशील, सब कुछ सह लेने वाला होता है तथा जो किसी प्रकार का निदान-नियाण नहीं करता है और कौतूहल देखने - सुनने की तीव्र इच्छा से दूर रहता है, वह मुनि भावसाधु है। फिर, शरीर से परीषहों को जीतकर जो साधु जन्ममरणरूप संसारमार्ग से अपनी आत्मा को ऊपर उठा लेता है और जन्ममरण को अत्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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