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श्रमण-धर्म
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8. द्वेष एवं घृणा के वशीभूत होकर किसी अन्य भिक्षु पर पाराजिक-अपराध का मिथ्या आरोप उसे संघ से बाहर करने के लिए लगाना।
9. किसी भिक्षु के छोटे अपराध को, द्वेष एवं घृणा के वशीभूत होकर और उससे संघ से बाहर करने के लिए, बड़ा पारांचिक अपराध बताना।
___10. भिक्षु-संघ के द्वारा संघ-भेद नहीं करने के लिए प्रार्थना करने पर भी किसी बात पर जोर देकर संघ-भेद करवाना।
11. संघ-भेद करवाने वाले भिक्षु के अतिरिक्त वे भिक्षु, जो उसका समर्थन करते हैं, वे भी संघादिशेष के दोषी हैं।
12. भिक्षु-संघ के द्वारा यह समझाने पर भी कि आपस के सहयोग और परामर्श से संघ का विकास होगा, जो भिक्षु अपने को संघीय-जीवन से पृथक् रखता है, वह भी संघादिशेष-अपराध का दोषी है।
___13. जो भिक्षु अपने दुराचरण के कारण गाँव के लोगों के द्वारा दुराचारी के रूप में जाना जा चुका है और संघ के निवेदन के उपरांत भी गाँव से नहीं हटता है, वह भी संघादिशेष-अपराध का दोषी है।
बौद्ध-परम्परा में प्रायश्चित्त के अन्य प्रकार अनियत नैसर्गिक और पाचित्तिय हैं, जिन्हें बौद्ध-परम्परा की पारिभाषिक-शब्दावली में निसग्गीय पाचित्तिय-धम्म और पाचित्तिय-धम्म कहा जाता है, उनकी तुलना जैन-परम्परा के सामान्यतया आलोचना
और प्रतिक्रमण से की जा सकती है। निसग्गीय पाचित्तिय-धम्म में सामान्यतया वस्त्र-पात्र संबंधी 30 नियम आते हैं और उनका उल्लंघन करने पर श्रमण निसग्गीय पाचित्तियअपराध का दोषी माना जाता है। अन्य भाषण, निवास, आहार आदि संबंधी 92 नियम पाचित्तिय-धम्म कहे जाते हैं और उनका उल्लंघन करने पर भिक्षु पाचित्तिय-धम्म का दोषी माना जाता है। प्रतिदेशनीय, सेखिय और अधिकरण समथ-शिक्षाएँ है।185
इस प्रकार, जैन एवं बौद्ध-दोनों परम्पराओं में भिक्षु-जीवन एवं श्रमण संस्था को पवित्र बनाए रखने के लिए विभिन्न नियमों और प्रायश्चित्तों का विधान है। आदर्श श्रमण के जीवन का सुन्दर विवेचन जैन और बौद्ध-परम्पराओं में है। जैनों के दशवकालिक और उत्तराध्ययनसूत्र में तथा बौद्धों के धम्मपदऔर सुत्तनिपात में इसका सविस्तार विवेचन है कि आदर्श भिक्षु कैसा होना चाहिए। आगे के पृष्ठों में हम उन्हीं आधारों पर आदर्श श्रमण की जीवन-शैली का विवेचन करेंगे। यह विवेचना न केवल आदर्श श्रमण के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक है, वरन् दोनों परम्पराओं में जो साम्य है, उसे अभिव्यक्त करने के लिए भी आवश्यक है।
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