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श्रमण-धर्म
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भयंकर समझकर श्रमणाचार व तप में लगा रहता है, वही भावभिक्षु है। जो साधु हाथों से संयत है, चरणों से संयत है तथा वचनों से संयत है और संयतेन्द्रिय-इन्द्रियों से संयत है तथा जो धर्मध्यान में लगा रहने वाला और समाधियुक्त आत्मा वाला है तथा जो सूत्रार्थों को समझता है, वह भावसाधु है। जो साधु अपने वस्त्र-पात्र आदि भण्डोपकरणों में भी ममता
और प्रतिबन्धरूप लोभ से रहित है तथा बिना परिचय के घरों में भिक्षा के लिए जाता है व संयम को निस्सार बनाने वाले पुलाक व निष्पुलाक-दोषों से दूर रहता है तथा खरीद, बिक्री वसंचय आदि से विरत रहता है और जो सब प्रकार से संगों से मुक्त है, वह साधु भावभिक्षु है। जो साधु नहीं मिली हुई चीजों में लोलुपता नहीं रखता तथा मिले हुएरसों में आसक्ति भी नहीं रखता है और भावविशुद्ध गोचरी करता है तथा जो असंयमी-जीवन को नहीं चाहता है और जो स्थिरचित्त होकर लब्धिरूप ऋद्धि, वस्त्रादिके सत्कार तथा स्तुति आदि से पूजा की भी आशा नहीं रखता है, वह भावसाधु है। जो साधु न जाति से मत्त बनता और न रूप से तथा जो लाभ में भी मद नहीं करता व श्रुतज्ञान का भी अभिमान नहीं रखता है और जो सब प्रकार के गर्त को छोड़कर धर्मध्यान में लगा रहता है, वह भावभिक्षु है। जो महामुनि सच्चे धर्म का ही मार्ग बताता है, जो स्वयं सद्धर्म पर स्थिर रहकर दूसरों को भी सद्धर्म पर स्थिर करता है, त्याग-मार्ग ग्रहण कर दुराचारों के चिहों को त्याग देता है (अर्थात् कुसाधु कासंग नहीं करता) तथा किसी के साथ ठिठोली, मसखरी आदि नहीं करता, वही सच्चा भिक्षु है। (ऐसा भिक्षु क्या प्राप्त करता है ?) ऐसाआदर्श भिक्षु सदैव कल्याणमार्ग में अपनी आत्मा को स्थिर रखकर नश्वर एवं अपवित्र देहावास को छोड़कर तथा जन्म-मरण के बंधनों को सर्वथा काटकर अपुनरागति मोक्ष को प्राप्त होता है। 186
इसी प्रकार, उत्तराध्ययनसूत्र में भी 'सभिक्षु' नामक अध्ययन में आदर्श भिक्षुजीवन का परिचय वर्णित है। जिसने विचारपूर्वक मुनि-वृत्ति अंगीकार की, जोसम्यग्दर्शनादि से युक्त, सरल, निदानरहित, संसारियों के परिचय का त्यागी, विषयों की अभिलाषारहित
और अज्ञात कुलों की गोचरी करता हुआ विचरता है, वही भिक्षु कहलाता है। राग-रहित, संयम में दृढ़तापूर्वक विचरने वाला, असंयम से निवृत्त, शास्त्रज्ञ, आत्मरक्षक, बुद्धिमान्, परीषहजयी, समदर्शी, किसी भी वस्तु में मूर्छा नहीं करनेवाला भिक्षु कहलाता है। कठोर वचन और प्रहार को जानकर समभाव से सहे, सदाचरण में प्रवृत्ति करे, सदा आत्मगुप्त रहे, जो अव्यग्र मन से संयममार्ग में आनेवाले कष्टों को समभाव से सहन करता है, वही भिक्षु है। जीर्ण शय्याऔर आसन तथा शीत, उष्ण, डाँस, मच्छर आदि अनेक प्रकार के परीषहों के उत्पन्न होने पर अव्यग्र मन से सब कष्टों को सहन करता है, वही भिक्षु है। जो पूजा-सत्कार नहीं चाहता, वन्दना-प्रशंसा का इच्छुक नहीं है, वह संयती, सुव्रती, तपस्वी, आत्मगवेषी
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