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________________ श्रमण-धर्म 413 प्रार्थना करना, मैथुनेच्छा से हस्तकर्म करना, नग्न होना, निर्लज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना,स्तन आदिहाथ में पकड़कर हिलाना अथवा मसलना, पशु-पक्षी को स्त्री अथवा पुरुषरूप मानकर उनका आलिंगन करना, मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना, अचेल होकर सचेल के साथ रहना अथवा सचेल होकर अचेल के साथ रहना आदि क्रियाएँ गुरु चातुर्मासिक-प्रायश्चित्त के योग्य हैं ।183 । ___ छेद का अर्थ दीक्षा-पर्याय में कमी है। इसके कारण अपराधी का श्रमण-संघ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान था, वह अपेक्षाकृत नीचा हो जाता है। जो अपराधी तप के अयोग्य है, अथवा तप के गर्व से उन्मत्त है, अथवा तप-प्रायश्चित्त से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसके लिए छेद-प्रायश्चित्त का विधान है। विभिन्न अपराधों में उनकी गुरुता के आधार पर विभिन्न समयों की दीक्षा का छेद किया जाता है। मूल का अर्थ है-पूर्व दीक्षा को समाप्त कर नवीन दीक्षा देना। इसके कारण वह संघ में सबसे निम्न स्थान पर आ जाता है। सामान्यतया, पंचेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा एवं मैथुन सम्बन्धी अपराध इस प्रायश्चित्त के कारण माने जाते हैं। अनवस्थाप्य-प्रायश्चित्त में अपराधीको तत्काल नवीन दीक्षा नहीं देकर कुछ समय तक उसकी परीक्षा की जाती है और संघ के आश्वस्त हो जाने पर, अथवा उसके द्वारा प्रायश्चित्तरूप विशिष्ट तप कर लेने के पश्चात् पुनः उसे दीक्षा दी जाती है। सामान्यतया, बार-बार अपराध करने वाले आपराधिक-प्रकृति के व्यक्तियों को यह दण्ड दिया जाता है। साधर्मिक-स्तैन्य, अन्यधार्मिक-स्तैन्य, मुष्टिप्रहार आदि अपराधों के लिए इस दण्ड की व्यवस्था है। पारांचिक-प्रायश्चित्त में अपराधी-भिक्षु को सदैव के लिए संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। जब किसी भी प्रकार अपराधी का सुधार सम्भव नहीं दिखता, तो अन्त में पारांचित-प्रायश्चित्त का दण्ड दिया जाता है। जैन-परम्परा में परिस्थिति की भिन्नता एवं अपराधी की मनोवृत्ति के आधार पर अपराध की तीव्रता या मन्दता का निर्णय किया जाता है और तदनुरूप दण्ड दिया जाता है, अतः यह सम्भव है कि ऊपर सेसमान दिखनेवाले दोष के लिए भी भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्तहो सकते हैं। जैन-परम्परा में प्रायश्चित्त प्रदान करने का अधिकार आचार्य को होता है, परिस्थिति-विशेष में छोटे या सामान्य अपराधों के लिए अन्य पदाधिकारी भी प्रायश्चित्त प्रदान कर सकते हैं। यदि अपराध एवं अपराधी विशेष प्रकार के हों, तो सम्पूर्ण संघ भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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