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________________ भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन संबंध में सावधानी रखी जाए। विवेक का दूसरा अर्थ अशुद्ध आहार आदि का सावधानीपूर्वक परिहार कर देना है। 412 गमनागमन, स्वप्न और श्रुतसंबंधी दोषों के लिए कायोत्सर्ग-प्रायश्चित्त का विधान है । इस सामान्य दोषों के अतिरिक्त, विशिष्ट अपराधों के लिए तप - प्रायश्चित्त का विधान है। निशीथसूत्र में तप - प्रायश्चित्त के चार प्रकार मिलते हैं- 1. गुरुमासिक, 2. लघुमासिक, 3. गुरु चातुर्मासिक और 4. लघु चातुर्मासिक। लघुमासिक या मासलघुप्रायश्चित्त का अर्थ एकासन और गुरु मासिक का अर्थ उपवास है। इसी प्रकार, लघु चातुर्मासिक का अर्थ वेला (लगातार दो दिन तक अन्न-जल का त्याग ) और गुरु चातुर्मासिक का अर्थ तेला (लगातार तीन दिन तक अन्न-जल का त्याग ) है । लघुमासिक के योग्य अपराध - दारूदण्ड का पादप्रोंछन बनाना, पानी निकलने के लिए नाली बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की प्रशंसा करना, निष्कारण परिचित घरों में प्रवेश करना, अन्य तीर्थिक अथवा गृहस्थ की संगति करना, शय्यातर अर्थात् आवास देने वाले मकान मालिक के यहां का आहार- पानी ग्रहण करना आदि क्रियाएँ लघुमासिक-प्रायश्चित्त के कारण हैं । गुरुमासिक के योग्य अपराध-अंगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, अंगादान को नली में डालना, पुष्पादि सूंघना, पात्र आदि दूसरों से साफ करवाना, सदोष आहार का उपयोग करना आदि क्रियाएँ गुरुमासिक-प्रायश्चित्त के कारण हैं । लघु चातुर्मासिक के योग्य अपराध - प्रत्याख्यान का बार-बार भंग करना, गृहस्थ के वस्त्र, पात्र, शय्या आदि का उपयोग करना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, अर्द्धयोजन अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, विरेचन लेना अथवा औषधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को नमस्कार करना, वाटिका आदि सार्वजनिक स्थानों में मल-पेशाब डालकर गन्दगी करना, गृहस्थ आदि को आहारपानी देना, दम्पत्ति के शयनागार में प्रवेश करना, समान आचार वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को स्थान आदि की सुविधा न देना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना अथवा योग्य को शास्त्र न पढ़ाना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढ़ाना अथवा उससे पढ़ना आदि क्रियाएँ लघु चातुर्मासिक-प्रायश्चित्त की कारण हैं। गुरु चातुर्मासिक के योग्य अपराध - स्त्री अथवा पुरुष से मैथुनसेवन के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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