________________
408
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
में निहित है, जबकि जैन-परम्परा में अन्तिम निर्णायक आचार्य होता है और सर्वोच्च सत्ता भी उसी में निहित रहती है। बौद्ध-परम्परा में आचार्य की नियुक्ति आवश्यक नहीं मानी गई है। उसमें संघ ही उस दायित्व का निर्वाह करता है, यद्यपि कुछ छोटे-मोटे प्रश्नों का निर्णय वरिष्ठ भिक्षु कर लेता है। इस प्रकार, जैन और बौद्ध-दोनों ही परम्पराओं में भिक्षु-संघ की व्यवस्था है, लेकिन दोनों में कुछ मौलिक अन्तर भी हैं । जैन-परम्परा में आचार्य की शरण में जाने का विधान है, जबकि बौद्ध-परम्परा में संघ की शरण ही ग्रहण की जाती है। बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण के पश्चात् किसी भी उत्तराधिकारी की नियुक्ति को अनावश्यक बताते हुए संघ को ही अपना उत्तराधिकारी बताया था, जबकि जैन-परम्परा में महावीर के पश्चात् संघ के प्रमुख के रूप में सुधर्मा आदि आचार्यों को प्रतिष्ठित किया जाता रहा है। बौद्ध-परम्परा ने यह माना था कि बिना किसी नेता (आचार्य) के भी संघ-व्यवस्था सुचारू रूप से चल सकती है।
भिक्षुओं के पारस्परिक-संबंध-भिक्षु-संघ में भिक्षुओं के पारस्परिक-संबंधों को जैन-परम्परा में संभोग कहा जाता है। संभोग संबंधी बारह नियम निम्न प्रकार हैं
1. उपधि-संभोग - वस्त्र, पात्र आदि सामग्री उपधिकही जाती है। भिक्षुसामान्यतया संघ के दूसरे भिक्षुओं के साथ इनका परिवर्तन या लेन-देन कर सकते हैं।
2. श्रुत-संभोग - परस्पर एक-दूसरे को ज्ञान देना एवं शास्त्राध्ययन करवाना। 3. भक्तपान-संभोग - एक-दूसरे की लाई हुई भिक्षा को आपस में ग्रहण करना। 4. अंजलि-प्रग्रह-संभोग - परस्पर एक-दूसरे का सम्मान करना।
5. दान-संभोग - परस्पर शिष्यों का लेन-देन। एक ही संघ के भिक्षु अपने शिष्यों को आपस में एक-दूसरे को दे सकते हैं।
6. निमन्त्रण - एक ही भिक्षु-संघ के भिक्षुआपस में एक-दूसरे को आहार, उपधि और शिष्यों के लेन-देन के लिए निमन्त्रित कर सकते हैं। आहार आदि के लिए दूसरे भिक्षुओं को आमन्त्रित करना।
7. अभ्युत्थान - दूसरे वरिष्ठ भिक्षुओं के आगमन पर अपने शासन से उठकर उन्हें सम्मान देना एवं आसन प्रदान करना।
8. कृतिकर्म - दीक्षा-वय की दृष्टि से ज्येष्ठ भिक्षुओं को आपस में वन्दन करना।
9.वैयावृत्य - वृद्ध, रोगी एवं अपंग भिक्षुओंकी ससम्मान एवं सावधानीपूर्वक सेवा करना। भिक्षुओं के लिए निम्न दस की सेवा आवश्यक मानी गई है - (1) आचार्य, (2) उपाध्याय, (3) स्थविर, (4) तपस्वी, (5) शैक्ष-छात्र, (6) ग्लान अर्थात् रोगी, (7) साधर्मिक, (8) कुल, (9) गण और (10) संघ की सेवा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org