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________________ श्रमण-धर्म 409 10. समवसरण-प्रवचन आदि के अवसर पर परस्पर एक-दूसरे के यहां जाना। 11. सन्निषध्या - एक ही संघ के भिक्षु दूसरे भिक्षुओं के साथ एक ही आसन (पाट) पर बैठ सकते हैं। एक ही पाट पर बैठकर प्रवचन आदि कर सकते हैं। भिक्षु के लिए भिक्षुणियों के साथ एक ही पाट पर बैठना निषिद्ध है। _12. कथाप्रबन्ध - आपस में एक-दूसरे के साथ बैठकर धार्मिक-विषयों पर विचार करना ।179 जैन और बौद्ध-परम्परा में श्रमणी - संघ-व्यवस्था ___ यद्यपिश्रमणों की संघ व्यवस्थाअति प्राचीनकाल से प्रचलितथी, लेकिन श्रमणियों के संघ की व्यवस्था सामान्यतया सर्वप्रथम जैन-परम्परा में ही प्रचलित हुई। बुद्ध ने अपने भिक्षु-संघ में स्त्रियों के प्रवेश की अनुमति बहुत ही अनुनय-विनय के पश्चात् प्रदान की। यद्यपि जैन और बौद्ध-परम्पराएँ इस विषय में एकमत हैं कि भिक्षुणी-संघ को भिक्षु-संघ के अधीन ही रहना चाहिए, दोनों ही भिक्षुणी-संघों में स्त्री-प्रकृति को ध्यान में रखते हुए कुछ विशिष्ट नियमों का प्रतिपादन हुआ है। बुद्ध ने इस संबंध में अष्ट गुरुधर्मों का निर्देश किया है(1) भिक्षुणी संघ में चाहे जितने वर्षों तक रही हो, तो भी वह छोटे-बड़े सभी भिक्षुओं को प्रणाम करे, (2) जिस गाँव में भिक्षु न हों, वहां भिक्षुणी न रहे, (3) हर पखवाड़े में उपोसथ किस दिन है और धर्मोपदेश सुनने के लिए कब आना है - ये बातें भिक्षुणी भिक्षु-संघसे पूछ ले, (4) चातुर्मास के बाद भिक्षुणी को भिक्षु-संघ और भिक्षुणी-संघ-दोनों में प्रवारणा करनी चाहिए, (5) जिस भिक्षुणी से संघादिशेष आपत्ति हुई हो, उसे दोनों संघों में पन्द्रह दिनों का मानत्त लेना चाहिए, (6) जिसने दो वर्ष तक अध्ययन किया हो, ऐसी श्रामणेरी को दोनों संघ उपसम्पदा दे दें, (7) किसी भी कारण से भिक्षुणी भिक्षु के साथ गाली-गलौज न करे, (8) भिक्षु ही भिक्षुणी को उपदेश दे।180 जैन-परम्परा में भी दीक्षा-वृद्ध श्रमणी को नवदीक्षित श्रमण को वन्दन करने का विधान है। इसी प्रकार, जैन-भिक्षुणी को भिक्षु-संघ के निर्देश में चलना होता है। प्रायश्चित्तविधान की दृष्टि से बड़े अपराधों के लिए आचार्य ही प्रायश्चित्त देता है। यद्यपि जैन-परम्परा में श्रमणी-वर्ग के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह उन्हीं स्थानों पर रहे, जहां भिक्षु निवास करते हों। दीक्षा और आलोचना (प्रवारणा) की दृष्टि से जैन-परम्परा में ऐसा कोई नियम नहीं है कि वह श्रमण-वर्ग के द्वारा या उनके सम्मुख ही हो, यद्यपि श्रमण भी श्रमणी को दीक्षित कर सकता है एवं श्रमणी श्रमण के सम्मुख आलोचना कर सकती है। श्रमणी-संघके लिए इन विशिष्ट नियमों के पीछे सामान्यतया पुरुष-प्रधान संस्कृति का हाथ रहा है, यद्यपि कुछ जैन-विद्वानों एवं धर्मानन्द कोसम्बी प्रभृति कुछ बौद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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